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महाशिवरात्रि पर विशेष लेख: श्री लोधेश्वर महादेव धाम स्वयंभू शिवलिंग का पूरा पढ़ें इतिहास

 

बाराबंकी का स्वयंभू शिवलिंग श्रीलोधेश्वर धाम महादेवा 

लेखक एडिटर कृष्ण कुमार शुक्ल/संदीप शुक्ल

बाराबंकी।भारत की धरती पर अनगिनत धार्मिक स्थल हैं, जिनमें से कुछ अपने दिव्य स्वरूप और प्राचीनता के कारण अत्यंत विशेष माने जाते हैं। इन्हीं में से एक श्री लोधेश्वर महादेव धाम है, जो उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले की रामनगर तहसील में स्थित है। यह स्थान भगवान शिव के स्वयंभू शिवलिंग के लिए प्रसिद्ध है, जिसे 12 ज्योतिर्लिंगों और 52 स्वयंभू लिंगों में गिना जाता है। यह स्थल पौराणिक काल से लेकर वर्तमान समय तक आस्था, भक्ति और शक्ति का केंद्र बना हुआ है।

पौराणिक कथा और ऐतिहासिक महत्व:

सतयुग में श्री लोधेश्वर महादेव की उत्पत्ति:

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब भगवान विष्णु ने पृथ्वी को पाताल से निकालने के लिए वाराह अवतार लिया, तब उन्होंने राक्षस हिरण्याक्ष का वध कर सृष्टि की रक्षा की। अपने इस कर्म के बाद स्वयं को शुद्ध करने और ब्रह्मांडीय शक्ति को स्थिर करने के लिए उन्होंने भगवान शिव की उपासना की। भगवान शिव उनकी आराधना से प्रसन्न हुए और गंडकी नदी (जो अब घाघरा नदी के रूप में जानी जाती है) के किनारे स्वयंभू लिंग के रूप में प्रकट हुए।

भगवान विष्णु ने इस स्वयंभू लिंग की पूजा की और इसे “गंडकेश्वर महादेव” का नाम दिया। यह क्षेत्र वाराह क्षेत्र (जिसे शूकर क्षेत्र भी कहा जाता है) के रूप में विख्यात हुआ।

त्रेता युग में भगवान श्रीराम के पुत्र लव द्वारा पूजन:

त्रेता युग में जब भगवान श्रीराम ने अयोध्या में जन्म लिया और अपनी लीलाओं को समाप्त कर गुप्तार घाट, सरयू नदी में सशरीर अपने अनुज भरत के साथ चले गए, तो उनके पुत्र लव को आत्मग्लानि हुई कि वह अपने पिता की सेवा नहीं कर सके। वह अस्वस्थ रहने लगे और किसी भी उपचार का लाभ न मिलने पर महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें इस पावन क्षेत्र में स्थित स्वयंभू शिवलिंग की आराधना करने का सुझाव दिया।

लव ने इस स्थान पर आकर शिवलिंग को खोजा और उसकी पूजा-अर्चना की। उन्होंने अपने ही नाम पर इसे “लवेश्वर महादेव” नाम दिया। इसके बाद से इस स्थान की ख्याति और भी अधिक बढ़ गई।

द्वापर युग में पांडवों का आगमन और शिवलिंग की पुनः प्रतिष्ठा:

द्वापर युग में, जब कौरवों ने पांडवों को लाक्षागृह (बिठूर, ब्रह्मावर्त) में जलाने का षड्यंत्र रचा, तो वे किसी प्रकार बच निकले और अपनी माता कुंती के साथ घूमते हुए इस वाराह क्षेत्र में पहुंचे।

माता कुंती ने यहां भगवान शिव की पूजा करने की इच्छा व्यक्त की और पारिजात पुष्प की कामना की। उनकी इच्छा पूरी करने के लिए अर्जुन इंद्रलोक से पारिजात वृक्ष लेकर आए, जिसे वर्तमान में किंतूर के पास बरौलिया ग्राम में स्थापित किया गया।

इसी समय भीम उत्तराखंड से केदारनाथ की एक शिला लेकर आए, जिसे कुंतेश्वर महादेव के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। माता कुंती ने स्वयं इस शिवलिंग की पूजा की और कहा जाता है कि तब से आज तक यह शिवलिंग प्रतिदिन स्वतः पूजित मिलता है।

महाभारत युद्ध से पूर्व युधिष्ठिर द्वारा यज्ञ और अर्जुन का बाण चालन:

जब कौरवों और पांडवों के बीच महाभारत युद्ध की घोषणा हुई, तो युद्धस्थल चयन के दौरान ज्ञात हुआ कि यह क्षेत्र पृथ्वी का मध्य बिंदु है। यदि यहां युद्ध हुआ तो अयोध्या (30 कोस पूर्व) और नैमिषारण्य (30 कोस पश्चिम) भी प्रभावित होंगे। इसलिए, युद्ध का मैदान बदल दिया गया।धर्मराज युधिष्ठिर ने यहां एक विशाल यज्ञ किया और भगवान शिव की खोज कर उनकी आराधना की। यज्ञ के दौरान अर्जुन ने एक बाण चलाया, जिससे एक जलधारा फूट निकली, जो वर्तमान में बाणहन्या तालाब (बोहनिया तालाब) के रूप में जानी जाती है।

कलियुग में लोधेश्वर महादेव की पुनः स्थापना

समय के साथ, जब गंडकी (घाघरा) नदी दक्षिणवाहिनी हो गई, तो यह क्षेत्र जलमग्न हो गया और शिवलिंग फिर से भूमिगत हो गया। बाद में जब नदी पुनः उत्तरवाहिनी हुई, तो यह भूमि फिर से कृषि योग्य बनी और यहां बस्ती बस गई।

लोधेराम अवस्थी को शिवलिंग का पुनः दर्शन:

कलियुग में लोधौरा गाँव के एक किसान लोधेराम अवस्थी अपने खेत में सिंचाई कर रहे थे, जब उन्होंने देखा कि पानी एक गड्ढे में समाता जा रहा है। जब उन्होंने गहराई में खुदाई की, तो एक शिवलिंग प्रकट हुआ, जिससे रक्त की धारा निकलने लगी।रात में भगवान शिव ने स्वप्न में आकर उन्हें आदेश दिया कि इस स्थान को पवित्र कर उनकी पूजा-अर्चना की जाए। सुबह जब वे वहां पहुंचे, तो एक सन्यासी (महंत सवाई महादेव पुरी) पूजा करते मिले। उन्होंने इस मंदिर का आधा भाग उन्हें दान कर दिया, जिससे मंदिर की परंपरा और व्यवस्था शुरू हुई।

मंदिर की विशेषताएँ:

1. रंग बदलने वाला शिवलिंग

प्रातः काल: गुलाबी (भोर के समान)

मध्याह्न: सफेद (दूध के समान)

सायंकाल: श्यामवर्ण (काले रंग का)

2. शिवलिंग पर चंद्राकार निशान

जब इस शिवलिंग पर दूध चढ़ाया जाता है, तो फावड़े से हुए प्रहार का चंद्राकार निशान और रामनंदी तिलक स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।

धार्मिक आयोजन पर विशेष पर्व और मेले:

महाशिवरात्रि: फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को भव्य मेला

श्रावण मास: पूरे माह कांवड़ यात्रा और विशेष पूजन

भाद्रपद मास: हरितालिका तीज उत्सव

अगहन मास: वार्षिक मेला

श्री लोधेश्वर महादेव कॉरिडोर: एक भव्य निर्माण की ओर:

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी ने श्री लोधेश्वर महादेव कॉरिडोर के निर्माण की योजना बनाई है। इस भव्य कॉरिडोर के बनने से यह तीर्थ स्थल और अधिक दिव्य और सुव्यवस्थित हो जाएगा।

मंदिर दर्शन और आरती समय

प्रातः काल: 5:00 AM – 12:00 PM

दोपहर विश्राम: 12:00 PM – 1:00 PM

सायंकाल: 1:00 PM – 9:00 PM (श्रृंगार और शयन आरती के बाद कपाट बंद)

निष्कर्ष

श्री लोधेश्वर महादेव धाम न केवल एक प्राचीन शिव मंदिर है, बल्कि आस्था, शक्ति और इतिहास का केंद्र भी है। इस मंदिर की दिव्यता और पौराणिक महत्ता हर भक्त को आध्यात्मिक शांति और मोक्ष प्रदान करती है।

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