मैं फैसल मलिक हूं। वहीं फैसल, जिसने पंचायत वेब सीरीज में ‘प्रह्लाद चा’ का रोल किया है। मेरे पास दर्द की लाइब्रेरी है, पर मैं इसे शेयर नहीं करना चाहता। मेरे दुख बहुत निजी हैं, उन्हें बेच नहीं सकता। पंचायत सीरीज में जब मेरा फौजी बेटा मरा, तो रोने वाले
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जवानी के दिनों में काम के लिए मुंबई तो चला आया था, लेकिन रहने का कोई ठिकाना नहीं था। जैसे तैसे करके एक दोस्त के यहां रात गुजार लेता था, पर सुबह होते ही निकलना पड़ता था। दिन भर इधर-उधर भटकता था। कई बार भूखे पेट सोया, तो कई बार दो बिस्किट खाकर दिन भर गुजार लिया।
एक रात मैंने खाना नहीं खाया था, जाकर एक जगह बैठा था। वहां एक शख्स आए। उन्होंने कहा- आप परेशान लग रहे हो? मैंने कहा- मेरे पास काम नहीं है। इस पर उन्होंने मुझे एक छोटी कॉफी पिलाई और पारले जी बिस्किट खिलाया।
उन्होंने मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा- यहां ऐसा ही होता है। मेरे साथ भी हुआ है। यह बात 2003 की है। तब से मैं कुछ न कुछ दूसरों की मदद करता रहता हूं। उसके बाद मैं वहां कई बार गया, लेकिन वह मिले नहीं।
इस बीच मुझे फिल्म इंडस्ट्री में लाइन प्रोडयूसर का काम मिल गया। एक दिन पैदल जाते वक्त वह शख्स रास्ते में दिखे। हमने एक-दूसरे को दूर से इशारा किया। उन्होंने कहा- किधर जा रहे हो? मैंने कहा- काम मिल गया है, तो वह बहुत खुश हुए। उन्होंने एक दिलचस्प सीख दी, जिसे मैं आज भी फॉलो कर रहा हूं।
उन्होंने कहा कि आपको जिससे जो कुछ मिले उसे बांटते रहना, उससे मैजिक होगा। तब से मैं कहीं खाना भिजवा देता हूं, किसी चाय या मुरमुरे वाले की जेब में पैसे डाल देता हूं और कहता हूं मेरी तरफ से किसी को खिला-पिला देना। उनसे मिलने के बाद से एक अलग ही दुनिया जी रहा हूं।
दरअसल, मेरी जिंदगी प्रयागराज से शुरू होती है। वहां मेरी मां उर्दू पढ़ाती थीं और पिता सिंचाई विभाग में काम करते थे।
पढाई में अच्छा नहीं था। उस दौरान घर से निकलने और वापस आने का टाइम बहुत अलग था। अक्सर किसी को पता नहीं चलता था कि मैं कब निकला और कब वापस लौटकर आया।
इस पर पापा कहते थे- आखिर दोस्तों के साथ मिलकर ऐसी कौन सी सरकार गिरा रहे हो? उस पर मैं हंसता था, वह भी हंस देते थे।
पापा जब सुबह ऑफिस जाते, तब भी मैं उन्हीं दोस्तों के साथ चौराहे पर अक्सर खड़ा मिल जाता था और जब शाम को आते, तब भी वहीं मिल जाता था। वह दोस्तों से भी पूछते थे- आखिर ऐसा क्या करते हैं आप लोग। कितनी बातें करते हो कि खत्म ही नहीं होती?
इस दौरान कुछ दोस्तों की संगत में आकर गलत रास्ते पर चल पड़ा था। कुछ ऐसा कर दिया था कि जेल भी जा सकता था। हालांकि मैं अंदर से उन दोस्तों जैसा नहीं था, इसलिए लगा कि अब प्रयागराज छोड़ देना चाहिए। पापा भी हाथ जोड़ कहने लगे थे कि कहीं चले जाओ।
बड़े भाई भी नाराज थे। वह मेरे लिए पिता जैसे हैं। उन्होंने मुझसे पूछा कि आखिर तुम करना क्या चाहते हो? मैंने कहा, ‘मुंबई जाऊंगा।’ इस पर उन्होंने हां कर दी और मुझे मुंबई भेजने की तैयारी में जुट गए। वह साल 2002 था।
मेरे लिए प्रयागराज छोड़ना मुश्किल हो रहा था। मुंबई आने से पहले दो रात सो नहीं पाया था। फिर बड़े भाई और उनके दो दोस्त मुझे मुंबई छोड़ने आए थे। एक एक्टिंग इंस्टीट्यूट की तलाश हुई और वहां एडमिशन करा दिया। साथ ही जिम भी जॉइन करवा दिया और घर चले गए।

एक इवेंट में फैसल मलिक।
तीन महीने में एक्टिंग का कोर्स खत्म हो गया। उसी समय लग गया था कि ये मेरे बस का नहीं है। मुंबई आने से पहले दो अंग्रेजी फिल्में देखी थीं। तब लगा था कि एक्टिंग कर लूंगा, लेकिन मुंबई शहर आपके चेहरे पर असलियत थोप देता है। बता देता है कि आप वाकई में हैं क्या।
फिर सोचा, चलो कुछ और कर लेता हूं, लेकिन पैसे खत्म हो गए थे। पहले ही घर से काफी पैसे मांग चुका था, इसलिए और मांगने की हिम्मत नहीं हुई। उस समय बड़े भाई को भी बिजनेस में बड़ा घाटा हो गया था। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं, किससे पैसे मांगूं।
घर से पैसा नहीं मांगा और अब मुंबई में असली संघर्ष शुरू हुआ। ऐसा भी टाइम आया जब मेरे पास खाने के लिए कुछ नहीं था। एक बार तो किचन में सिर्फ आटा और लाल मिर्च बची थी।
इस संघर्ष के दौरान जिस दोस्त के यहां रहता था, वहां नहा भी नहीं सकता था। बाहर ही नहाना पड़ता था।
उस दिन के बारे में यही कहूंगा कि वो मेरी निजी जिंदगी थी। उसके बारे में बात करना और उस दुख को बेचना अच्छा नहीं लगता। मेरा मानना है कि अपना दुख किसी को बताना नहीं चाहिए।
हालांकि आज भी उस संघर्ष को साथ लेकर चलता हूं। यही सोचता हूं कि उस समय मुंबई में मुझसे भी ज्यादा दुखी लोग थे। रेलवे स्टेशन पर मेरे जैसे बहुत से परेशान लोग रहते थे। मैं अकेला नहीं था।
इसके बावजूद मुझे मुंबई बहुत पसंद है। इसकी रातें बहुत अनोखी होती हैं। यहां रात में ऐसे लोग मिल जाते हैं, जो आपको जानते नहीं, लेकिन खाना खिला देते हैं। हाल-चाल पूछ लेते हैं। हौसला बढ़ा देते हैं।
इस दौरान लगभग 18 साल फिल्म इंडस्ट्री में काम करते हुए अपना प्रोडक्शन हाउस शुरू किया और प्रोड्यूसर बन गया। कई शो प्रोड्यूस किए, लेकिन पापा को यह काम पसंद नहीं था।
इसी बीच ‘पंचायत’ वेब सीरीज में काम करने का ऑफर आया, लेकिन मैं एक्टिंग छोड़ चुका था। प्रोडक्शन हाउस चलाने में जुट गया था। मना करने पर इस सीरीज के निर्देशक दीपक मिश्रा, लेखक चंदन कुमार और सचिव जी का रोल निभाने वाले जितेंद्र कुमार मेरे ऑफिस आए।
उन्होंने कहा कि हमने आपका काम गैंग्स ऑफ वासेपुर में देखा है। आपको पंचायत सीरीज में प्रह्लाद चा का रोल करना है। मैंने कहा- अब एक्टिंग नहीं होगी मुझसे, दूसरा काम शुरू कर दिया है। उन्होंने भरोसा दिलाया कि आप कर लेंगे।
फिर मैंने सोचना शुरू किया। इस रोल के लिए मुझे कॉन्फिडेंस नहीं आ रहा था। हालांकि इन तीनों लोगों ने बहुत हौसला और भरोसा दिया। इसलिए आज इस सीरीज में जो कुछ भी कर रहा हूं उसका सारा क्रेडिट दीपक, चंदन और जितेंद्र कुमार को देना चाहूंगा। उन्हीं की वजह से इस सीरीज में मेरी एक्टिंग को एक मुकाम मिला है।
सच कहूं, तो ‘पंचायत’ सीरीज ने मेरी दुनिया बदल दी है। अब तो इस सीरीज के लिए जज्बाती हो गया हूं। दूसरे सीजन में बेटे की मौत पर रोने का सीन मेरे लिए बहुत खास बन गया था। समझ नहीं पा रहा था कि उसे कैसे करूं, ताकि कोई गलती न हो।
उस सीन के लिए बहुत अलग तरह की कोशिश की। कोई चूक न हो, इसके लिए थोड़ी पढ़ाई की। दूसरे एक्टर्स की एक्टिंग देखी। कुछ एक्टर्स से मदद ली।

एक टैबलेट के साथ एक्टर फैसल मलिक। वह बताते हैं कि इसी में मेरी किताब-कॉपी सब है। मेरे घर में टीवी नहीं है।
दरअसल, उस सीरीज का अंत ही उसी सीन पर होना था, इसलिए वह मेरे लिए बहुत चैलेंजिंग बन गया था।
डायरेक्टर और लेखक ने मुझ पर भरोसा किया। उस सीन को करने में मुझे 6 महीने लग गए। सीन को फाइनल टच देने के लिए मैंने छह दिन तक किसी से बात नहीं की थी। अकेले रहने लगा था। खाना भी अकेले खाता था। मेकअप करवाकर अकेले ही प्रैक्टिस करता था।
उसके लिए मुझे नींद का पैटर्न भी बदलना पड़ा, ताकि चेहरा थका हुआ लगे। 6 दिन तक सिर्फ 2 घंटे सोया, तब जाकर वो सीन हो पाया।
सीरीज बड़ी हिट हुई है, यह तब पता चला, जब कोविड के दौरान कोलकाता एयरपोर्ट पर पानी पी रहा था। चेहरे से मास्क हटाया तो वहां खड़े लोग कहने लगे- अरे आप… कोविड में तो आपने हमें खूब हंसाया। मैंने उन सभी का शुक्रिया अदा किया था।
इस सीरीज ने मेरे फैन बेस को एक नया मुकाम दिया है। मुझे चाहने वाले लोग इंस्टाग्राम, फेसबुक, वॉट्सएप वगैरह के जरिए देश-विदेश से वीडियो कॉल करते हैं।

दुबई से एक फैन का वीडियो कॉल अटेंड करते फैसल मलिक।
मेरा काम देखकर पापा भी खुश हुए। उन्होंने फोन करके कहा- इसी तरह का काम किया करो, इससे तुम नजर आते हो। प्रोड्यूसर का काम कुछ खास नहीं है।
हालांकि इसी दौरान मेरी जिंदगी का सबसे खराब वक्त भी आया। नवंबर 2019 से अप्रैल 2020 तक मैंने कोविड के चलते अपने 16 करीबी लोगों को खो दिया।
मेरी मौसी के जवान बेटे और बेटी दोनों की मौत हो गई। दोनों से बहुत मोहब्बत थी। प्रयागराज में रहने के दौरान मौसी भी टीचर थीं। वे भी मां के साथ पढ़ाने जाती थीं। तब हम तीनों एक साथ रहते थे। हमने बचपन में 12 साल एक साथ बिताए थे।
इस महामारी के दौरान मेरा वक्त कब्रिस्तान और श्मशान में ही बीत रहा था। लोग डर की वजह से वहां जाते नहीं थे, लेकिन मैं जा रहा था। मेरे बारे में एक बात मशहूर है कि कोई भी दिक्कत हो, फैसल आकर सब संभाल लेगा।
इस दौरान एक ऐसा वक्त आया, जब मैं भी कुछ संभालने की हालत में नहीं रहा। पापा बीमार पड़ गए और उनकी सेहत लगातार बिगड़ती चली गई। परिवार के लोग उन्हें दिल्ली ले गए और एक अस्पताल में भर्ती करवाया। मैं भी मुंबई से देखने पहुंचा और उन्होंने मेरी आंखों के सामने दम तोड़ दिया।
खुद को संभालना मुश्किल हो गया था। सोचा ही नहीं था कि पापा इस तरह अचानक चले जाएंगे।
रात में उनकी डेडबॉडी को प्रयागराज ले जाने की तैयारी हुई। उससे पहले ही हमने पूरे परिवार का कोविड टेस्ट करा लिया था। घर पहुंचने पर टेस्ट की रिपोर्ट आई तो पता चला कि बड़े भाई को भी कोविड हो गया है।
इसके बाद तो मेरी हालत बहुत खराब थी। घर के बाहर बैठकर सोचने लगा कि भाई को कुछ नहीं होना चाहिए। इस दौरान, जैसे मेरी आवाज बंद हो गई थी। फिर जब वह ठीक हुए, तब जाकर कुछ बोल पाया।

अपने पापा के निधन के बारे में बात करते हुए फैसल काफी भावुक हो गए। वह कहते हैं पापा भूलते ही नहीं, अक्सर याद आते हैं।
पापा भूलते ही नहीं, अक्सर याद आते हैं। उनके जाने के बाद जैसे मेरे दिमाग में एक ब्लैक होल सा बन गया है। कुछ गायब सा लगता है।
पापा का और मेरा बहुत अनोखा रिश्ता था। मैंने उन्हें बहुत तंग किया था। वह मुझे उस्ताद कहते थे। पूछते थे- और उस्ताद क्या चल रहा है, क्या नया कर रहे हो? मैं हंस देता था, वह मेरे चेहरे से जान लेते थे कि कोई बदमाशी करने वाला हूं।
मुझे याद है जब छोटा था, तो पापा मुझे साइकिल सिखा रहे थे। वह लेडीज साइकिल थी। जब पैडल मारता, तो पापा पीछे से उसका कैरियर पकड़े रहते थे।
जब उन्हें लगने लगा कि अब थोड़ा सीख गया हूं तो कैरियर छोड़ देते थे और साथ-साथ दौड़ते थे। जब डरकर पीछे देखता तो वह इशारा करते कि मैं हूं। वह आंखों का इशारा, दरअसल भरोसे का इशारा था, लेकिन अब वह नहीं हैं!
वह बहुत अच्छे इंसान थे। साधारण जिंदगी जीने वाले। ईमानदारी से नौकरी की और हमारे लिए एक अच्छा सा घर बनाया।
इसी बीच मेरा एक दोस्त केन्या गया था। उसकी भी वहां कोविड से मौत हो गई। उसकी डेडबॉडी आज तक नहीं मिली है।

फैसल मलिक ने कोविड महामारी के दौरान अपने करीबी 16 लोगों को खो दिया था। इस पर बात करते हुए वह काफी गमगीन हो जाते हैं।
इस दौरान मेरा प्रोडक्शन हाउस पूरी तरह ठप होने की कगार पर था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं। तब मेरे दोस्त मेरी ताकत बने। उन्हीं की मदद से आज प्रोडक्शन हाउस बचा हुआ है।
मुंबई के आराम नगर इलाके में मेरे प्रोडक्शन हाउस के आस-पास कई प्रोडक्शन हाउस हैं। उन्हीं के बीच अक्सर मैं चिल्लाकर कहता था कि अगर किसी को मोटा, काला और बदसूरत या बच्चों को डराने वाला आदमी चाहिए, तो वह मुझे अपनी फिल्म में ले सकता है। यह कहकर हंस देता था।
मुझे हमेशा लगता था मेरा लुक ही ऐसा है कि कभी भी कोई रोल ऑफर होने वाला नहीं है। रोल मिला और बार-बार पुलिस का ही रोल ऑफर हुआ।

पंचायत सीजन 4 का पोस्टर।
इस समय पंचायत का सीजन 4 आया है। बेटे की मौत के वक्त वाला दर्द वाला चेहरा इसमें भी बनाकर रखना पड़ा है। यह काम बहुत मुश्किल था, लेकिन इसके लिए दर्द की लाइब्रेरी खोली है। मेरी यह लाइब्रेरी काफी लंबी है। बस उसमें से कैसेट निकालकर प्ले कर देता हूं।
इस सीरीज को लेकर कई किस्से हैं। रघु जी यानी रघुबीर यादव की हम सब पर बड़ी मेहरबानी है कि वे इसमें हमारे साथ हैं। उनकी ऊर्जा 16 साल वाले लड़कों जैसी है। उनका सेंस ऑफ ह्यूमर ऐसा है कि हम पूरा दिन हंसते रहते हैं।
कई बार तो डायरेक्टर माथा पकड़ लेते हैं और कहते हैं- भाई अब हंसी बंद करो, दुख वाला सीन है। बावजूद इसके हमारा हंसना जारी रहता है। हालांकि सीन करने के वक्त हम गंभीर हो जाते हैं।
पंचायत के बाद अपने प्लान की बात करूं, तो अब अपने प्रोडक्शन हाउस को दोबारा रिवाइव करना चाहता हूं। पंचायत में मेरे रोल की सफलता के बाद अब प्रोडक्शन हाउस के मेकर्स भी मेरी बात सुनने लगे हैं। पहले भाव नहीं देते थे, झगड़ा कर लेते थे। अब इस सीरीज के लिए अवॉर्ड वगैरह मिल गया है तो चीजें आसान हो गई हैं।

फैसल मलिक को पंचायत सीजन 3 के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर कॉमेडी का अवॉर्ड मिला है। इसके अलावा आइफा समेत कई अवॉर्ड मिले हैं।
दरअसल, सफलता और असफलता के बीच बहुत महीन फर्क होता है। आज मुझे जो कुछ मिला है, उससे संतुष्ट हूं, लेकिन एक फिल्म बनाने का मन है।
अपनी सेहत की बात करूं तो मुझे स्लीप एपनिया है। इस बीमारी में सोते हुए जुबान मुड़ जाती है। कई बार उल्टी भी हो जाती है, जिससे आदमी मर भी सकता है। ऐसा ज्यादा वजन होने के चलते होता है।
दरअसल, मेरा स्लीप पैटर्न काफी समय से बहुत खराब है। स्लीप टेस्ट से इसका पता चला है। अब भी सुबह ही सो पाता हूं। फिलहाल, मैंने इसे ठीक करने की कोशिश नहीं की, इसके लिए मैं ही जिम्मेदार हूं। नींद की गोली पर भरोसा नहीं है, इसलिए जैसा है, वैसा चलने दे रहा हूं।
मेरी पत्नी मेरी कमाल की दोस्त हैं। वह मेरे प्रोडक्शन हाउस में हिस्सेदार हैं। मीडिया वालों से बात नहीं करतीं, कैमरे के सामने आने से शर्माती हैं।

एक तस्वीर में पत्नी के साथ फैसल मलिक।
आखिर में कहना चाहूंगा कि प्रयागराज के दोस्तों को छोड़ने का दुख है। वहां के पार्क, सिविल लाइन इलाका, दादा डोसा वाला, हीरा हलवाई, मदीने होटल की निहारी, स्कूल वाले दोस्त, सब रह रहकर याद आते हैं।
(पंचायत वेब सीरीज के एक्टर फैसल मलिक ने ये सारी बातें भास्कर रिपोर्टर मनीषा भल्ला से साझा की हैं।)
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1- संडे जज्बात- मेरी तो सुहागरात भी नहीं हुई:पति विकास दुबे का साथी था, पुलिस ने मार दिया; सोचने पर नाक से खून आता है

ज्यादा सोचती हूं, तो नाक से खून बहने लगता है। मोबाइल की घंटी बजते ही दिल की धड़कन बढ़ जाती है, लगता जैसे कोई बुरी खबर आने वाली हो। पटाखों की आवाज से डरकर कांपने लगती हूं। रात को नींद नहीं आती। किसी भी काम में मन नहीं लगता। पढ़ना चाहती हूं, लेकिन शब्द आंखों के सामने से गुजरते हैं, दिमाग पकड़ नहीं पाता। पूरी खबर पढ़िए…
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पिता मुझे आईएएस बनाना चाहते थे, लेकिन उनकी बात कभी नहीं मानी। उनसे उपद्रव का रिश्ता रहा। एक बार उन्होंने कहा कि तुम्हें पुणे के खड़कवासला मिलिट्री स्कूल जाना चाहिए, ताकि जिंदगी में अनुशासन आ सके। उन दिनों मैं क्रिकेट बहुत खेलता था। मैंने वहां भी जाने से इनकार कर दिया। पूरी खबर पढ़िए…