19 घंटे पहलेलेखक: डेमोक्रेट चौहान/इंद्रभूषण मिश्र
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1924 प्रयाग कुम्भ की बात है। ब्रिटिश सरकार ने संगम में स्नान पर रोक लगा दी थी। सरकार का कहना था कि संगम के पास फ़्लान बढ़ गया है, भीड़ की वजह से दुर्घटना हो सकती है।
इलिनोइस विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर रह रहे हेरंब चौधरी हैं- 'कल्पवासी दिन में तीन बार स्नान करते हैं। दोपहर का स्नान वे संगम तट पर ही करते हैं। इसलिए वे संगम में स्नान के लिए अड़े थे।'
कल्पवासियों को पंडित मदन मोहन इंटरनैशनल का साथ मिला। उन्होंने सरकार के खिलाफ जल सेवा शुरू कर दी। 200 से अधिक कल्पवासी, अंतर्देशीय के साथ ब्रिटिश पुलिस के साथ आर-पार के मूड में थे।
मज़हबी नेहरू भी तब प्रयाग में ही थे। जब उन्हें पता चला कि संगम में स्नान को लेकर ग्रामीण जल की तलाश कर रहे हैं, तो वे भी संगम पहुंच गए।
अपनी आत्मकथा 'मेरी कहानी' में नेहरू गांधी के खिलाफ हैं- 'मेला दौरे पर मैंने देखा कि इंजील जी जिले के मजिस्ट्रेट के आदेश के जल उपचार कर रहे हैं। जोश में मैं भी साइंस टीम में शामिल हो गया। मैदान के उस पार लक्ज़री का बड़ा सा बैरिकेड बनाया गया था।
हम आगे बढ़े लागे, तो पुलिस ने कहा। हमारे हाथ में छड़ी थी, जिसे पुलिस ने छीन लिया। हम राइट पर स्ट्राइक स्ट्राइक लेगे। दोनों तरफ पैदल और घुड़सवार पुलिस स्टेक थी। धूप हल्दी जा रही थी। मेरा धैर्य अब काम में लग गया था।
इसी बीच घुड़सवार पुलिस को कुछ ऑर्डर मिला। मुझे लगा कि ये लोग हमें कुचल देंगे, हमारे साथ मार-पीट करेंगे। मैंने सोचा क्यों न हम मंजिल के ऊपर से ही फ़ंड। मेरे साथ बाइट्स मैन बैरिकेड्स के ऊपर चढ़ गए। कुछ लोगों ने बांस की बालियां भी निकाल लीं। इससे रास्ता बन गया। मुझे बहुत गर्मी लग रही थी, इसलिए मैंने गंगा में गोता लगा लिया।
ऑर्गेनिक जी बहुत अलग थे और ऐसा लग रहा था कि वे खुद को प्रतिबंधित करने की कोशिश कर रहे हैं। अचानक बिना किसी से कुछ कहे अंतर्देशीय जी उठे और पुलिस के बीच से डूबे गंगा में कूद पड़े। इसके बाद पूरी भीड़ गंगा में खोजने के लिए टूट फूट पड़ी।'
इस तरह ब्रिटिश सरकार के प्रयासों के बावजूद कल्पवासियों ने संगम में स्नान किया। 'महाकुंभ के एपिसोड किस्से' सीरीज के 8वें में आज कल्पवास की कहानी…
ब्रिटिश सरकार के खिलाफ संगम में स्नान करते हुए पंडित नेहरू और मदन मोहन मदरसा बने।
कल्पवास, अर्थात पौष मास की पूर्णिमा से लेकर माघ मास की पूर्णिमा तक संगम किनारे वेदों का अध्ययन करना, ध्यान करना और साधना करना। सौतेले से यह परंपरा चली आ रही है। महाभारत, रामचरित मानस और पुराणों में कल्पवास का उल्लेख है।
आमतौर पर कल्पवास महीनाभर का होता है। कुछ लोग 3 दिन, 7 दिन और 15 दिन का भी कल्पवास करते हैं।
रामचरित्र मानस के बालकांड में तुलसीदास का निर्माण किया गया है- 'माघ मकर गत रवि जब होई। तीरथ पतिहि एव सब कोई। देव दनुज किन्नर नर श्रेणि। सादर मज्जहिं सकल त्रिवेणी।'
यानी माघ महीने में जब सूर्य मकर राशि में आते हैं, तब सभी तीर्थराज प्रयाग आते हैं। देव, दैत्य, किन्नर और मानव भक्ति भाव से त्रिवेणी-संगम में स्नान करते हैं।
कल्पवास के दौरान याज्ञवल्क्य मुनि ने भारद्वाज मुनि को रामकथा सुनाई
रामचरितमानस के अनुसार हर साल माघ महीने में साधु-संत प्रयाग आते थे और भारद्वाज मुनि के आश्रम में कल्पवास करते थे। एक बार कल्पवास पूरा करने के बाद सभी संत लौट आये, लेकिन याज्ञवल्क्य मुनि को भारद्वाज मुनि ने नहीं दिया। उन्होंने उनका पैर पकड़ लिया और रामकथा सुनने का आग्रह किया। इसके बाद याज्ञवल्क्य मुनि ने उन्हें रामकथा कहा।
कहा जाता है कि राम वनवास की शुरुआत में प्रयाग गए थे और लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद उन्होंने प्रयाग में स्नान-दान किया था।
बिहार में रहने वाले प्रेम कुमार झा और उनकी पत्नी गौरी देवी का यह 12वां कल्पवास है। 2013 के कुंभ में दोनों ने कल्पवास की शुरुआत की थी।
कल्पवास, कल्प से बना है। वैदिक साहित्य के अनुसार वेदों के अध्ययन के लिए 6 वेदांगों की रचनाएँ पढ़ें। ये 6 वेदांग हैं- शिक्षा, छंद, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और कल्प। कल्प में यज्ञ, ध्यान, दान आदि की विधि बताई गई है।
कुंभ चार स्थान- प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और नासिक में लगते हैं, लेकिन कल्पवास सिर्फ प्रयाग में ही होता है। हर साल माघ मेले के दौरान कल्पवासी प्रयाग आते हैं। सिद्धांत है कि कुंभ के दौरान कल्पवास की महिमा बढ़ती है।
सिद्धांत- कल्पना करने वालों को 432 करोड़ साल का फल मिलता है
पादरियों के स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद के अनुसार ब्रह्माजी का एक दिन को कल्प कहा जाता है। कलयुग, द्वापर, त्रेता और सतयुग के आसपास जब एक हजार बार आते हैं, तो वह काल ब्रह्मा जी के एक दिन या एक रात के बराबर होता है।
सतयुग 17,28,000 वर्ष, त्रेता युग 12,96,000 वर्ष, द्वापर युग 8,64,000 वर्ष और कलियुग 4,32,000 वर्ष होता है। ऐसे एक हजार साल गुजरेंगे तब एक कल्प होगा। यानी कोई कुंभ में कल्पवास करेगा तो पृथ्वी की गणना के अनुसार उसे 432 करोड़ वर्ष का फल मिलेगा।
धार्मिक सिद्धांतों के अनुसार जो कल्पवासी 12 वर्ष तक लगातार कल्पवास करते हैं, उन्हें मोक्ष मिलता है। कर्मकांड या पूजा में हर कार्य के साथ शुरुआत होती है और संकल्प में 'श्रीश्वेतवाराहकल्पे' का बोध होता है। इसका मतलब यह है कि सृष्टि की शुरुआत से लेकर अब तक 11 कल्प शुरू हो चुके हैं। अभी 12वां कल्प चल रहा है।
प्रयाग आने पर विस्तार और जाने वक्त की किताब कल्पवासी हैं
शास्त्रों में कुंभ के दौरान कल्पवास को सबसे अधिक फलदायी माना गया है। पुराणों में कल्पवास के लिए अलग-अलग समय बताया गया है। पद्म और ब्रह्म पुराण के पौष मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया से माघ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तक कल्पवास करना चाहिए।
विष्णु पुराण के अनुसार कल्पवास पूर्णिमा या पूर्णिमा के दिन से शुरुआत की जा सकती है। शर्त केवल इतनी ही है कि सूर्य मकर राशि में होना चाहिए। सनातन पौष पूर्णिमा से माघ पूर्णिमा तक कल्पवास करने की परंपरा है।
कल्पवासियों के लिए समुद्र तट की पवित्र रेती पर पैर रखना ही कल्पवास शुरू माना जाता है। संगम में प्रवेश। फिर किनारे पर ध्यान करने और दान देने के बाद कल्पवासी उन शिविरों या कुटिया में गढ़वाले हैं, जहां वे एक मंथ रहेंगे।
इतिहासकार हेरंब चौधरी कहते हैं- 'कल्पवासी जब भी प्रयाग आते हैं, तो सबसे पहले वे बताते हैं। अपने रेस्तरां में जौ और तुलसी का पौधा हैं। सामासिकता से मुक्ति का प्रतीक माना जाता है। कल्पवास पूरा करने के बाद कल्पवासी जौ और तुलसी को गंगा जल में प्रवाहित कर देते हैं। घर दस्तावेज़ वक्ता वह कढ़ी खाते हैं। 'खी खाने का मतलब है वह फिर से सासारिकता में प्रवेश करता है।'
आजादी के बाद पहले कुंभ में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने कल्पवास किया था
आज़ादी के बाद 1954 में पहला कुम्भ प्रयाग में लगा। राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद तब कुंभ राशि के थे और उन्होंने एक महीने का कल्पवास किया था। वे संगम तट पर किले के एक हिस्से में रहते थे। आज भी उनकी याद में वह जगह सुरक्षित है। उस स्थान पर प्रेसीडेंट का दौरा कहा जाता है। जब राजेंद्र प्रसाद वहां कल्पवास करते थे, तो आपके मित्र प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री सहित कई नेता आये थे।
वर्ष 1954 में कुम्भ मेले का निरीक्षण राष्ट्रपति राजेद्र प्रसाद ने किया।
राजा रियासत कल्पवास के दौरान पूरा राज-पाट लुटा देते थे
शुरुआत में यहां केवल ऋषि-मुनि ही तपस्या करते थे। छठी शताब्दी की शुरुआत में गृहस्थों के लिए कल्पवास शुरू हुआ। उस दौरान माघ महीने में राजा रास्त्रियां यहां आईं और अपना सब कुछ त्याग कर वापस चली गईं। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी प्रयाग में राजा के दान और अनुष्ठानों का ज़िक्र किया है।
ह्वेनसांग अपने स्मरण में डूबे हुए हैं- 'दो नदियाँ गंगा और यमुना के बीच प्रयाग है। यहां बहुत सारे फलदार वृक्ष हैं। हिंदू देवी-देवताओं के मंदिर हैं। हर जगह पर ही रेत दिखती है। जिस स्थान पर ये दोनों नदियाँ हैं, यहाँ के लोग उन्हें महादानभूमि कहते हैं।
गंगा के उत्तरी तट पर मोटरसाइकिल का शिविर लगा था। जलपोत के साथ जलपोत की सुबह की यात्रा। मैं भी उनके साथ था. कई देशों के राजा इंतज़ार कर रहे थे। साधु-संत, गरीब, रोगी और विधवा, हर तरह के लोगों का हुजूम इंद्रधनुष था।'
राजा कल्पवास के दौरान साधु-संतों को दान देते हुए।
ह्वेनसांग फर्जी हैं- 'हर्षवर्धन ने सबसे पहले महानदानभूमि के अंदर एक मंदिर में बुद्ध की मूर्ति स्थापित की थी। उनका श्रृंगार और आभूषण रत्न चढ़ाए। राजा ने कपड़े, रत्न और भोजन लोगों के बीच बांटे।
दूसरे दिन उन्होंने सूर्य की मूर्ति स्थापित की और तीसरे दिन महादेव की मूर्ति स्थापित की। चौथे दिन बौद्ध भिक्षुओं को सोने के सिक्के बाँटे। इसके बाद साधु-संतों को खंडित रत्न दिया गया। फिर विधवा, अनाथ और राक्षस को दान दिया गया। इस तरह लगातार 74 दिन तक बिजली दान करते रहे। उन्होंने पूरा खजाना खाली कर दिया। अंत में अपना मुकुट भी दान कर दिया।'
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