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India Pakistan Partition; Kashmir Kathua Villager Story | Radcliffe Line | ब्लैकबोर्ड- भारत में हैं, फिर भी लोग पाकिस्तानी कहते हैं: लोग हमारे यहां शादी नहीं करते, हमारे साथ ऐसा सलूक जैसे हम इंसान ही नहीं


जम्मू का एक ऐसा गांव जहां लोगों को 75 साल तक न तो वोट डालने का मौका मिला और न ही नौकरियां मिलीं। न पढ़ने के लिए स्कूल मिला और न ही इलाज के लिए अस्पताल। भारत में होते हुए भी लोगों को पाकिस्तानी कहा गया। 2024 में पहली बार इन्हें वोट देने का अधिकार तो म

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जम्मू के कठुआ जिले में एक गांव है चक्क छाबा। शहर से करीब 35 किलोमीटर दूर बसे इस गांव में पांच हजार लोग रहते हैं। बंटवारे के वक्त हजारों लोग पाकिस्तान से भागकर जम्मू पहुंचे थे। उन्हें जम्मू के अलग-अलग इलाकों में सालों तक कैंपों में रखा गया। इनमें ज्यादातर दलित हिंदू थे। आर्टिकल 370 की वजह से इन्हें यहां का निवासी नहीं माना जा रहा था।

धूल उड़ाती रोड़ी-बजरी वाली सड़क और नदी-नाले लांघ कर मैं बुलेट की मदद से इस गांव में पहुंची। इस इलाके में बहुत ज्यादा लोग नहीं दिखाई दे रहे हैं। इक्का-दुक्का ही दुकाने हैं। यहां के लोग डोगरी भाषा में बात करते हैं। एक स्थानीय की मदद से मैं इनसे बात करने की कोशिश करती हूं।

कठुआ जिले के चक्क छाबा गांव में करीब 5 हजार लोग रहते हैं।

कठुआ जिले के चक्क छाबा गांव में करीब 5 हजार लोग रहते हैं।

मेन गेट से गांव में अंदर जाने के लिए सड़क बन गई है। गांव वालों के मुताबिक उनके यहां पहली बार सड़क बनी है। लोग कहते हैं कि जब नेताओं को लगा कि इनको वोटिंग के अधिकार मिल गए, तो सड़क बना दो ताकि उन्हें वोट मिल सकें। इससे पहले कोई हमारा हाल पूछने नहीं आता था। जानवरों से भी बदतर हालात थे हमारे।

जब मैं गांव में पहुंची तो देखा कि लोग अपने खेतों में काम कर रहे थे। कुछ लोग जानवरों को पानी पिला रहे थे और उनके लिए चारा काट रहे थे।

यहां मेरी मुलाकात 65 साल के तरसेम लाल से हुई। दशकों की अनदेखी से वे इतना आहत थे कि शुरुआत में तो उन्होंने बातचीत करने से ही मना कर दिया। नाराजगी के साथ उनके भीतर एक डर भी था। डर ये कि अगर उन्होंने कुछ कहा तो सरकार के लोग उनके पीछे पड़ जाएंगे। फिर बहुत समझाने पर वे बातचीत के लिए तैयार हुए।

65 साल के तरसेम लाल खेती करके गुजारा करते हैं।

65 साल के तरसेम लाल खेती करके गुजारा करते हैं।

तरसेम के पूर्वज पाकिस्तान में गुरदासपुर के शकरगढ़ तहसील से यहां आए थे। दरअसल, आजादी के पहले गुरदासपुर जिले में चार तहसील थी- गुरदासपुर, बटाला, पठानकोट और शकरगढ़। इनमें से शकरगढ बंटवारे के बाद पाकिस्तान के हिस्से में चला गया। ऐसे में वहां रहने वाले हिंदू भारत लौट आए, जिनमें से ज्यादातर दलित थे।

तरसेम बताते हैं- ‘पाकिस्तान से यहां आने के बाद हमारे पूर्वजों को कैंप में रखा गया था। तीन-चार दिन में एक बार खाने के लिए मिलता था। यहां की बंजर जमीन को खुद ही समतल किया, ताकि खाने के लिए कुछ उगा सकें। इस तरह धीरे-धीरे खाने-पीने का जुगाड़ तो हो गया, लेकिन किसी ने हमें अपनाया नहीं। तीन पीढ़ियां गुजर गईं, लेकिन आज तक इस गांव के किसी भी बच्चे को कोई नौकरी नहीं मिली। यहां तक कि बच्चे पढ़े तक नहीं सके। बस खेती ही हमारा सहारा है।’

पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में यहां के लोगों ने मतदान किया। उनके लिए यह पहला मौका था। कई लोग तो ऐसे थे जो 70-80 साल के हो चुके थे और पहली बार वोट डाल रहे थे। उनके चेहरे पर इसकी खुशी देखते ही बन रही थी। मीडिया में उनकी तस्वीरें आई थीं। लोग जश्न मना रहे थे। ढोल बजा रहे थे।

गांव के लोगों की रोजी-रोटी का एकमात्र जरिया खेती ही है।

गांव के लोगों की रोजी-रोटी का एकमात्र जरिया खेती ही है।

बच्चे पढ़ाई क्यों नहीं करते… इस सवाल पर खीझते हुए तरसेम लाल कहते हैं- ‘गांव में स्कूल है नहीं। मीलों-मील पैदल चलकर बच्चे स्कूल क्यों जाएं, जब नौकरियां मिलनी ही नहीं। क्या मतलब है पढ़ाई करने का।’

‘हमें भी शौक है कि हमारे परिवार में पढ़े-लिखे लोग हों। पोते-पोतियां हों। अच्छा कमाएं, लेकिन सालों तक हमारे साथ ऐसा सलूक किया गया जैसे हम इंसान ही नहीं हैं।’

तरसेम कहते हैं, ’भले ही हमें विधानसभा में मतदान का अधिकार मिल गया है, लेकिन इससे हमारा पाकिस्तानी होने का कलंक नहीं मिटा है। न तो हमारी बेटियों की शादियां हो रही हैं और न ही बेटों की। लोगों का कहना है कि इनकी बेटी से शादी हुई तो बच्चे पाकिस्तानी होंगे। उनका कहना है कि इन पाकिस्तानियों के यहां बेटियां नहीं देनी हैं। जिन लड़कों की शादियां हुई हैं वह या तो झूठ बोलकर हुई हैं या बेमेल शादियां हुई हैं।’

तरसेम लाल कहते हैं कि दूसरे गांव के लोग हमें पाकिस्तानी बोलते हैं।

तरसेम लाल कहते हैं कि दूसरे गांव के लोग हमें पाकिस्तानी बोलते हैं।

तरसेम लाल एक किस्सा बताते हैं कि एक दफा वह भैंस लेने गए। लोगों ने कहा कि हमारे पास तो भैंस है नहीं, लेकिन वहां पाकिस्तानियों के यहां चले जाओ, शायद मिल जाए। वह कहते हैं कि हमारा नाम ही पाकिस्तानी है। दुख की बात है, इससे अच्छा मरना लगता है। हमारे ही साथ पाकिस्तान से आए डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन गए, लेकिन हमें मतदान तक का अधिकार नहीं, यह कैसा न्याय है हिंदुस्तान का।’

गांव की महिलाएं अपने अपने काम में लगी हैं। बहुत मुश्किल से बात करने पर राजी होती हैं। सिमरो देवी बताती हैं कि उनकी शादी इसी गांव में हुई थी। उस वक्त यहां जंगल था। सड़कें कच्ची थीं। शुरुआत में तो शहतूत के पत्ते खाकर गुजारा किया।

सिमरो के तीन बच्चे हैं। उनका बेटा दर्जी का काम करता है। वो दुखी हैं कि बच्चों की शादियां नहीं हो रही हैं। वह बताती हैं- ‘जैसे ही लोगों को हमारे गांव के बारे में पता चलता है, लोग तय हुआ रिश्ता भी तोड़ देते हैं। कहते हैं कि तुम पाकिस्तानियों से रिश्ता नहीं करना। तुम्हारे बच्चों को न नौकरी मिलेगी न कोई रोजगार। कैसे पालेंगे ये बच्चे। तुम लोगों को दर-बदर भटकना ही है।’

सिमरो देवी बड़ी मुश्किल से बातचीत के लिए तैयार होती हैं, लेकिन अपना चेहरा नहीं दिखातीं।

सिमरो देवी बड़ी मुश्किल से बातचीत के लिए तैयार होती हैं, लेकिन अपना चेहरा नहीं दिखातीं।

इसके बाद मेरी मुलाकात गांव के पूर्व सरपंच हरबंश लाल से हुई। बातचीत शुरू होते ही वे अपने हालात को याद करते हुए रोने लग गए। वे बताते हैं कि यहां से 25 किलोमीटर दूर अस्पताल है। वहां कोई इलाज के लिए नहीं जा पाता। इतनी दूर पैदल कौन जाए। इसलिए लोग यहां की राशन की दुकानों से दस रुपए की दवा ले लेते हैं। पढ़ाई के लिए छोटे बच्चों को चार किलोमीटर पैदल जाना होता है। इससे पहले 14 किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था।’

यहां बस वगैरह नहीं चलती क्या?

इस पर तंज करते हुए हरबंश लाल कहते हैं- ‘पाकिस्तानियों को बस नहीं चाहिए होती, हम पाकिस्तानी हैं इसलिए हमें पैदल ही जाना है हर जगह। सत्तर साल हो गए हम लोगों ने कभी सड़क नहीं देखी थी। सत्तर साल से पायजामा ऊपर करके कीचड़ में चलते रहे हैं। या फिर पैंट खोलकर कंधे पर रखकर जूते हाथ में पकड़कर चलते थे। यह सड़क तो कुछ साल पहले तब बनी, जब नेताओं को पता लग गया कि हमें मतदान का अधिकार मिलने वाला है।’

गांव के पूर्व सरपंच हरबंश लाल।

गांव के पूर्व सरपंच हरबंश लाल।

आजादी के बाद भी पाकिस्तान का हिस्सा था गुरदासपुर

भारत-पाक बंटवारे के दौरान सीमाओं को तय करने के लिए रेडक्लिफ कमीशन बनाया गया। ब्रिटिश बैरिस्टर सिरिल रेडक्लिफ इसे लीड कर रहे थे। उन्होंने बंटवारे के लिए 1941 में हुई जनगणना को आधार बनाया। उस वक्त गुरदासपुर में 56.4% मुस्लिम आबादी थी।

ऐसे में गुरदासपुर को पाकिस्तान का हिस्सा बनाया गया। उस समय गुरदासपुर में चार तहसील गुरदासपुर, बटाला, पठानकोट और शकरगढ़ शामिल थीं। शकरगढ़ तहसील रावी दरिया के पार पाकिस्तान की ओर थी। 14 अगस्त को पाकिस्तान ने अपने डीसी और एसपी को चार्ज लेने के लिए गुरदासपुर भेज भी दिया था।

गुरदासपुर का पाकिस्तान में जाना भारत के लिए चिंता की बात थी, क्योंकि भारत के पास श्रीनगर जाने के लिए कोई सीधा रास्ता नहीं बचता, चूंकि उस वक्त पठानकोट भी गुरदासपुर जिले की ही तहसील थी।

जवाहरलाल नेहरू ने माउंटबेटन से मुलाकात की और गुरदासपुर को भारत में शामिल कराने पर अड़ गए। इसके बाद 16 अगस्त को गुरदासपुर की तीन तहसील भारत में शामिल हो गईं। इसकी घोषणा 17 अगस्त को की गई।

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