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Punjab Ambulance Driver Story; Patient Dead Body | Family Issues | संडे जज्बात-पत्नी-बच्चे नहीं चाहते फिर भी लाश, मरीज ढोता हूं: लोग चिल्लाते हैं तो सांस अटक जाती है, पेशाब भी रोकना पड़ता है

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मेरा नाम सुखदेव सिंह है। मैं एम्बुलेंस ड्राइवर हूं और पंजाब के नंगल का रहने वाला हूं। लोग कई बार एम्बुलेंस का हूटर बजाने पर भी रास्ता नहीं देते, जबकि उस हूटर के पीछे एक जिंदगी मौत से जूझ रही होती है। उस हालत में परिजन चिल्लाकर मेरे ऊपर प्रेशर बनाते ह

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आम ड्राइवर रास्ते में कुछ खा-पी भी लेते हैं। हंसी-मजाक कर लेते हैं, लेकिन हम एम्बुलेंस ड्राइवर बस भागते रहते हैं। कई बार तो पेशाब रोककर रखना पड़ता है। डेडबॉडी छोड़कर वापस लौटते वक्त अक्सर हम अकेले होते हैं। उस वक्त शव को याद कर डर जाता हूं।

सालों से बच्चों को कहीं घुमाने नहीं ले जा सका हूं। घर के किसी कार्यक्रम में शरीक नहीं हो पाता। पत्नी और बच्चे इस काम को छोड़ने को कहते हैं, लेकिन नहीं छोड़ पाता। दरअसल, एम्बुलेंस ड्राइवर की जिंदगी 24 घंटे काम पर होती है। फोन पर दिन-रात बस डेडबॉडी और मरीज की बातें होती हैं। अब खुशी, खुशी नहीं लगती, पत्थर जैसे हो गए हैं हम। डेडबॉडी और मरीज ही रोजगार हो गए हैं।

अपने परिवार के साथ सुखदेव सिंह, जिसमें वह पत्नी और बच्चों के साथ हैं। वह कहते हैं कि सालों से बच्चों को कहीं घुमाने नहीं ले जा सका हूं। परिवार उन्हें इस काम को छोड़ने के लिए कहता रहता है।

अपने परिवार के साथ सुखदेव सिंह, जिसमें वह पत्नी और बच्चों के साथ हैं। वह कहते हैं कि सालों से बच्चों को कहीं घुमाने नहीं ले जा सका हूं। परिवार उन्हें इस काम को छोड़ने के लिए कहता रहता है।

दरअसल, अरसा पहले मेरा परिवार चंडीगढ़ आ गया था। यहां आने पर मेरे पापा ने कई काम शुरू किए, लेकिन किसी में सफल नहीं हुए। उन्होंने पहले ट्रक, फिर ऑटो खरीदा, लेकिन सभी काम में नाकाम रहे। अब आखिर में मैंने एम्बुलेंस खरीदी है।

इसे कमाई के लिए नहीं ली, बल्कि एक बेबसी को लेकर खरीदी थी। करीब 12 साल पहले जिंदगी में एक हादसा हुआ, जिसकी वजह से यह फैसला लिया। चंडीगढ़ से लगभग 10 किमी दूर पंजाब के खुड्‌डा लाहौरा गांव का मेरा एक दोस्त जीतू है। उसके भाई का रोड एक्सीडेंट हो गया था। वह चंडीगढ़ पीजीआई में लगभग एक महीने एडमिट रहा। डिस्चार्ज होने के बाद उसे वापस घर ले जाना था, लेकिन कोई एम्बुलेंस नहीं मिल रही थी।

एम्बुलेंस ड्राइवरों का कहना था कि हम इतना नजदीक हम नहीं जाते, घाटा होता है। उस वक्त पीजीआई से खुड्‌डा लाहौरा जाने के लिए 300 रुपए लगते थे, लेकिन हमें उन्हें 1000 रुपए दे रहे थे, तब भी वे जाने को तैयार नहीं थे। उस दिन बड़ी मुश्किल से हमने मोहाली से 1100 रुपए में एम्बुलेंस मंगवाई थी।

तब लगा था आखिर ये कैसे लोग हैं कि ज्यादा पैसे देने पर भी जाने को तैयार नहीं हैं। क्यों न मैं ही एम्बुलेंस खरीद लूं। इस पर विचार करते-करते लगभग दो साल बीत गए।

उसके बाद फिर एक हादसा हुआ। जीतू के बड़े भाई रामबाबू को हार्ट अटैक आ गया। वह तड़प रहे थे। उस समय भी कई एम्बुलेंस वालों को फोन किया, लेकिन कोई आने को तैयार नहीं था। बड़ी मुश्किल से एक ड्राइवर लेकर आया।

रामबाबू को ले जाते वक्त रास्ते में भारी ट्रैफिक था। हम उन्हें समय पर अस्पताल नहीं पहुंचा पाए, रास्ते में ही उनकी मौत हो गई। मौत के तीन दिन के बाद जब हम उनकी अस्थियां हरिद्वार लेकर गए तब भी हमारे पास कोई गाड़ी नहीं थी, उसी दिन सोच लिया था कि अब चाहे जो हो जाए एम्बुलेंस लेकर रहूंगा। उसके बाद मैंने एम्बुलेंस खरीदी और तब से इसे चला रहा हूं।

लोग अक्सर रास्ता नहीं देते। कई बार मरीज पूरी तरह ऑक्सीजन पर होते हैं। कई बार घंटों ट्रैफिक में फंसने से ऑक्सीजन खत्म हो जाती है और मरीज की एम्बुलेंस में ही मौत हो जाती है।

उस दौरान मुझे लगता है कि एम्बुलेंस में जिंदगी-मौत से जूझ रहा मरीज मेरी एक सेकेंड की देर जिंदगी की जंग हार जाएगा और मैं खुद को माफ नहीं कर पाऊंगा।

एक बार नंगल से एक मरीज चंडीगढ़ पीजीआई के ट्रॉमा सेंटर आया था। उसे बहुत खून बह रहा था। वहां कोई बेड खाली नहीं था, इसलिए उसे एडमिट नहीं किया जा रहा था। उस दिन मैं वहां किसी काम से गया था। उसके परिजन मेरे पास आए और हाथ जोड़ते हुए उसे किसी प्राइवेट अस्पताल में भर्ती कराने को कहा।

मैंने तुरंत उसे अपनी एम्बुलेंस में डाला और लेकर निकल पड़ा। किसी तरह उसे मोहाली के एक प्राइवेट अस्पताल भर्ती कराया। रास्ते में एम्बुलेंस का गद्दा पूरी तरह खून में सन गया। बाद में उसे फेंकना पड़ा।

फिलहाल, वह बच गया। अभी चार दिन पहले उसके परिवार का फोन आया था कि वह अब ठीक हो रहा है। वे लोग बार-बार मेरा धन्यवाद कर रहे थे। मैंने वाहेगुरु का शुक्रिया अदा किया कि आखिर वह मेरी वजह से बच गया।

उस दौरान मैंने परिजनों से उसे ले जाने के लिए 1500 रुपए मांगे थे, लेकिन उनके पास एक हजार रुपए ही थे, बाकी 500 रुपए बाद में देने को कहा था, तब भी मैंने उन्हें मना नहीं किया।

एक दूसरा मामला है, जो मुझे कभी नहीं भूलता। पंजाब के लांडरां में एक रोड एक्सीडेंट हुआ था। सड़क पर एक सरदार जी बेसुध पड़े थे। उनकी पगड़ी निकलकर दूर पड़ी थी। उन्हें देखते ही पहचान लिया कि यह तो जसबीर सिंह हैं। तुंरत उन्हें एम्बुलेंस में डाला और मोहाली के सरकारी अस्पताल के लिए निकल पड़ा। रास्ते में उनका सिर लुढ़क गया। मेरी तो सांस ही अटक गई कि अगर वह जिंदा नहीं बचे, तो उनका परिवार मुझे छोड़ेगा नहीं।

अस्पताल पहुंचा तो डॉक्टरों ने मुझे अंदर बुलाया और कहा कि देखो इनका गला कट चुका है। दरअसल, लुढ़कने से एम्बुलेंस में लगा लोहे का एंगल उनके गले में घुस गया था। फिलहाल, डॉक्टरों ने ऑपरेशन शुरू किया और फिर मैंने उनके बेटे को फोन करके बुलाया। समय पर इलाज मिलने से उनकी जान बच गई। आज भी उनका परिवार मुझे फोन करके एहसान जताता है। मुझे बहुत सुकून मिलता है।

हाल ही में बिहार से एक महिला चंडीगढ़ आई हुईं थीं, जिनके जवान बेटे और बहू दोनों की मौत हो गई थी। तीन महीने का उनका पोता गोद में था। उन्होंने कहा- मुझे दूध का एक डिब्बा और ट्रेन का टिकट दिला दें तो घर पहुंच जाऊंगी।

हमने उनके लिए पैसे जुटाकर ट्रेन का टिकट खरीदा और बच्चे के लिए दूध का डिब्बा और कुछ सामान दिया, फिर वह वापस अपने घर गईं।

एक बार पीजीआई के डॉक्टरों ने एक लड़की को जवाब दे दिया कि अब वह नहीं बचेगी। परिवार की जिद पर मैं उसे लुधियाना के डीएमसी अस्पताल लेकर जा रहा था। मेरी एम्बुलेंस डीएमसी के गेट पर ही पहुंची थी कि उसकी मौत हो गई। परिवार मुझ पर गुस्सा हो रहा था कि मैंने एम्बुलेंस धीमी चलाई, जिसकी वजह से उसकी मौत हो गई। इस तरह के बहुत सारे केस झेलने पड़ते हैं।

एक बार एक महिला को एम्बुलेंस में लेकर जा रहा था। उसके दो छोटे बच्चे- एक पांच दिन का और एक दो साल का था। महिला अपनी बूढ़ी मां के पैरों पर सिर रखकर रो रही थी। कह रही थी कि अगर वह नहीं बची तो उसके बच्चे का क्या होगा और उसकी बूढ़ी मां लगातार उसे हौसला दे रही थीं। उसे किसी तरह अस्पताल छोड़कर आया।

अभी कल ही उसके एक परिजन का फोन आया कि महिला की मौत हो गई है, उसके शव को बरनाला ले जाना है। उनके फोन रखने के बाद मैं रोने लगा। मुझे उस महिला के छोटे बच्चे का चेहरा बार-बार याद आ रहा था कि वह तो अभी पांच दिन का ही है, आखिर उसका क्या होगा! अब तो इस तरह के कुछ चेहरे हैं, जो हमेशा साथ चलने लगे हैं।

इस वक्त मेरे पास चार एम्बुलेंस हैं। मेरा एक ड्राइवर बॉडी लेकर गुजरात, एक जम्मू और एक बिहार गया हुआ है।

सुखदेव सिंह की एक एम्बुलेंस के ड्राइवर सनी धामी, जिनकी रोड एक्सीडेंट में मौत हो चुकी है।

सुखदेव सिंह की एक एम्बुलेंस के ड्राइवर सनी धामी, जिनकी रोड एक्सीडेंट में मौत हो चुकी है।

हम मुंबई, असम, छत्तीसगढ़ तक बॉडी लेकर जाते हैं। नॉन स्टॉप जाना, फिर डेडबॉडी को पहुंचाकर तुरंत वापस आना होता है। उस दौरान न नींद, न खाना, न आराम कुछ नहीं मिलता। ठीक से नींद और आराम न करने से कई बार एक्सीडेंट भी हुआ, क्योंकि ड्राइवरों को सुबह तीन से पांच बजे के बीच अक्सर नींद आ जाती है। इस तरह हमारे कई एम्बुलेंस ड्राइवरों की मौत हो चुकी है।

हाल ही में बाप-बेटा दोनों की मौत हुई है। ऐसे में लगता है डेडबॉडी लेकर जा रहे हैं, कहीं खुद कफन में वापस न लौटें।

सुखदेव सिंह की एम्बुलेंस के ड्राइवर बाप-बेटे। इनकी भी रोड एक्सीडेंट में मौत हो गई है।

सुखदेव सिंह की एम्बुलेंस के ड्राइवर बाप-बेटे। इनकी भी रोड एक्सीडेंट में मौत हो गई है।

(सुखदेव सिंह ने अपने ये जज्बात भास्कर रिपोर्टर मनीषा भल्ला से साझा किए हैं।)

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1- संडे जज्बात-‘हमारे अंधेपन का मजाक उड़ाने पर हमने रास्ते बदले’:लोग बहाने से हाथ छूते हैं, ससुर की बेइज्जती से तंग आकर घर छोड़ा

मेरा नाम समता है। मैं 75 फीसदी विजुअली इम्पेयर्ड यानी दृष्टिबाधित हूं। मेरी बहन सुमन भी ठीक से देख नहीं पाती और पापा तो 100 फीसदी दृष्टिबाधित हैं। लोग कुछ भी लेते-देते समय हाथ छूते हैं। मेरी अंधेपन का फायदा उठाकर ऑटो वाले कई बार मुझे गलत रास्ते से लेकर गए।

शादी होने के बाद ससुराल में बहुत जलालत झेली। मेहमान घर पर आते, तो मैं डर जाती थी क्योंकि मेरे ससुर उन्हीं के सामने बेइज्जती करना शुरू कर देते थे। कहते थे- देखो मैंने कितना बड़ा उपकार किया है, ब्लाइंड बहू लाया हूं। आखिरकार तंग आकर मैंने घर ही छोड़ दिया।

दरअसल, मेरे परिवार में सभी लोग दृष्टिबाधित हैं। बस मां हैं, जिन्हें दिखाई देता है, लेकिन उनका एक पैर पूरी तरह पोलियोग्रस्त है। पूरी खबर यहां पढ़ें

2- संडे जज्बात-बेटे की मौत पर भगवान की मूर्तियां हटा दी:शेखर सुमन बोले-आज की कॉमेडी में फूहड़ता, बेहूदगी चल रही, बहुत गुस्सा आता है

एक छोटा सा परिचय है मेरा, नाम है शेखर सुमन और मैं एक अभिनेता हूं। मैंने कॉमेडी अच्छे मकसद से की, लेकिन आज की कॉमेडी दिशाहीन है। उसमें छिछोरापन है। चार्ली चैपलिन ने द ग्रेट डिक्टेटर में कॉमेडी की थी, जिसके पीछे एक अच्छा मकसद और संदेश था।

सोशल मीडिया पर कोई रोक-टोक नहीं है, जिसका जो मन कर रहा है, वो परोस रहा है। लोग वहां गालियां देते हैं। टीवी डिबेट्स में एंकर कूदते-उछलते हैं। लोगों के साथ बदतमीजी से पेश आते हैं। यह सब देखकर बहुत हैरानी होती है। आखिर समाज किधर जा रहा है? पूरी खबर यहां पढ़ें

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