‘बस बच्चों का सोचकर रुक जाता हूं वर्ना सुसाइड कर लेता। कर्ज लेकर बेटी की शादी की थी। अब कर्ज चुकाने के लिए मजदूरी कर रहा हूं। सोचा था शिक्षामित्र बनकर गांव के बच्चों का भविष्य संवारने में मदद करूंगा। आज अपने ही बच्चों को नहीं पढ़ा पा रहा हूं। पढ़ाई त
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डिप्रेशन में रहता हूं। शिक्षामित्र न बनकर शुरू से ही मजदूरी की होती तो आज भूखे मरने की नौबत न आती।’ ये कहते ही मजदूरी कर रहे वीर सिंह की आंखों में आंसू आ जाते हैं
ब्लैकबोर्ड में आज कहानी उत्तर प्रदेश के शिक्षा मित्र की जो घर चलाने के लिए मजदूरी, सिलाई या खेतों में कटाई का काम करने को मजबूर हैं…
मैं UP के बुलंदशहर में शिक्षा मित्रों से मिलने पहुंची। शिक्षा मित्र ऐसे सरकारी टीचर हैं जो स्कूल में बच्चों को पढ़ाते तो हैं, लेकिन वो परमानेंट नहीं हैं। इनकी सैलरी और बाकी सुविधाएं भी परमानेंट सरकारी टीचर से काफी कम हैं।
यहां के दूर-दराज गांव में कई सरकारी स्कूल हैं जिसमें कई शिक्षा मित्र काम करते हैं। यहां मेरी मुलाकात संजय चौधरी से हुई जो शिक्षा मित्र संगठन के जिलाध्यक्ष हैं। वो मुझे एक दर्जी की दुकान में लेकर जाते हैं। दुकान में सफेद शर्ट पहने, चश्मा लगाए राज कुमार तल्लीन होकर सिलाई का काम कर रहे थे। संजय कहते हैं, ये भी शिक्षामित्र हैं।

राज कुमार सुबह सरकारी स्कूल में बच्चों को पढ़ाते हैं, दोपहर में कपड़े सिलते हैं।
मैं हैरान होकर उनसे पूछती हूं ‘आप सिलाई क्यों कर रहे हैं?’ ये सवाल सुनते ही उनकी मशीन रुक जाती है। चश्मा संभालकर मेरी तरफ देखते हुए कहते हैं, ‘मैं किसी दूसरे की दुकान पर सिलाई करके पैसे कमाता हूं, क्योंकि 10 हजार सैलरी में घर नहीं चलता। 5 बच्चे हैं। मेरे पास न खेत है और न जमीन। इसलिए सिलाई का काम करता हूं।’
‘स्कूल में मेरी ड्यूटी सुबह साढ़े आठ से 3 बजे तक रहती है। पढ़ाने के अलावा और भी काम करने होते है जैसे स्कूल के लिए राशन का सामान लाना। ये काम भी हमें ही करना पड़ता है। UP बोर्ड की परीक्षा में भी हमारी ड्यूटी लगती है। घर-घर जाकर वोटर कार्ड का भी पता करना होता है। जिसका नहीं है, उसका बनवाना पड़ता है। जो लोग यहां से चले गए हैं उनका नाम वोटर लिस्ट से हटवाना भी पड़ता है। सरकार का जहां मन होता है हमारी ड्यूटी लगा देती है। उसके लिए 500 रुपए मिलते हैं, वो भी आने-जाने में खर्च हो जाते हैं।’
‘सैलरी भी 11 महीने की ही मिलती है। एक महीने का गैप भरना बहुत मुश्किल होता है। गांव के दुकानदारों से उधार लेकर काम चलाना पड़ता है। जब भी पैसे आते हैं तो उधारी चुकाता हूं।’
‘बेटी की शादी अरमानों से करना हर मां बाप का सपना होता है, लेकिन मेरे पास पैसे नहीं थे। इसलिए बड़ी बेटी की शादी गरीब परिवार में करवानी पड़ी। इस शादी के लिए भी दोस्तों से करीब 3 लाख रुपए उधार लिए। अभी तक ये कर्ज चुका नहीं पाया, अब दूसरी बेटी भी शादी लायक हो गई। एक-दो जगह बात भी की है उसकी शादी के लिए, लेकिन कुछ हुआ नहीं। लड़के वालों की डिमांड पूरी करने के लिए मेरे पास पैसे ही नहीं हैं।’
‘मेरे पिताजी बीमार हैं, बिस्तर पर हैं। उनके इलाज के लिए पैसे नहीं हैं। गांव में ही उनका इलाज चल रहा है। सैलरी कम है, इसलिए पत्नी भी ताने मारती है। कहती है- तुमसे अच्छे तो दिहाड़ी मजदूर हैं, जो एक दिन का कम से कम 500 से 700 रुपए कमा लेते हैं। तुम तो हर दिन के 300 ही कमाते हो। इसलिए मजबूरी में सिलाई का काम करना पड़ता है ताकि खर्च निकाल सकूं।’
‘रोज एक-दो घंटे और छुट्टी के दिन 6-7 घंटे सिलाई का काम करता हूं। एक शर्ट को सिलने का 60 रुपए मिलता है। सैलरी तो दूध, सिलेंडर, राशन में ही निकल जाती है। मैं खुद भी बीमार रहता हूं। अब दवा खाकर ही नींद आती है। दो बेटे हैं, वो अभी पढ़ रहे हैं। आज के समय में लड़कों की शादी करना भी आसान नहीं रहा। लड़की वाले लड़के की पढ़ाई और प्रॉपर्टी देख कर ही शादी करते हैं।’

राज कुमार कहते हैं कि छुट्टी वाले दिन 6-7 घंटे सिलाई करता हूं, ताकि खर्च निकाल सकूं।
हमें दुख है कि दूसरों का भविष्य बना रहे हैं, लेकिन हमारे बच्चों का भविष्य बिगड़ रहा है। न हम उन्हें अच्छा खिला रहे हैं, ना पहना रहे हैं और ना ही अच्छी शिक्षा दे पा रहे हैं। अब उम्र इतनी हो गई है कोई दूसरी नौकरी भी नहीं कर सकते।
जब 2006 में जॉइन किया था, तब वेतन 2250 रुपए था। कुछ साल बाद 3500 हो गया और 2017 में 10000 रुपए हो गए। इतने पैसे में गुजारा कैसे होगा। हमारे भाग्य में ही घिसना लिखा है।
राज कुमार से बात करने के बाद संजय मुझे एक कंस्ट्रक्शन साइट पर ले जाते हैं। वहां पर कई लोग मजदूरी कर रहे थे। उनमें से एक की तरफ इशारा करके संजय कहते हैं, ‘धारीदार टीशर्ट में जो मजदूरी कर रहे हैं वो वीर सिंह हैं, वो भी शिक्षा मित्र हैं।’
मैं वीर सिंह के पास गई तो वो काम रोककर कहते हैं, मैडम ये हमारे मजदूरी का टाइम है, अगर ज्यादा देर बात की तो ठेकेदार नाराज होगा। 55 साल के वीर सिंह 2002 से प्राथमिक स्कूल में शिक्षा मित्र हैं। वो बताते हैं कि उस वक्त 2250 रुपए मानदेय मिलता था, जिसमें रिन्युअल के समय बिचौलिया ही 1000-1500 ले लेता था। हमने मेहनत और ईमानदारी के साथ 22 साल नौकरी की है।
इन 22 साल में इज्जत तो पूरी मिली। बच्चे आज भी मेरी तारीफ करते हैं, लेकिन तारीफ से तो घर नहीं चलता है। ऐसी इज्जत और तारीफ का क्या फायदा जब खाने के पैसे ही नहीं हैं। अब 10000 सैलरी हो गई, लेकिन खर्च भी तो बढ़ गया।

मजदूरी करते शिक्षामित्र वीर सिंह।
2002 में भी शिक्षामित्र से ज्यादा पैसे मजदूरी करने के मिलते थे। आज भी मजदूरी के पैसे हमारी सैलरी से ज्यादा हैं। अब बच्चे बड़े हो गए, उनका खर्च भी बढ़ गया। 5 बच्चे हैं जिनमें 3 लड़कियां हैं और 2 लड़के। हमारे पास न खेती-बाड़ी है और न पुश्तैनी संपत्ति। घर भी छोटा सा है, उसमें भी काम करवाना है। नौकरी से तो रोजमर्रा की जरूरतें पूरी नहीं होतीं।
उम्मीद थी कि आगे चलकर सैलरी ठीक होगी। बच्चों को अच्छे से पढ़ा-लिखा दूंगा, लेकिन यहां तो खाने के ही लाले पड़ गए। नौकरी छोड़कर अगर पहले ही मजदूरी करने लगता तो आज बहुत फायदे में होता। अब चिंता में रात भर नींद नहीं आती। डिप्रेशन में हूं। कुछ याद भी नहीं रहता है। चलते-चलते रास्ता भूल जाता हूं। कभी-कभी दौरा पड़ने लगता है। इस समस्या का कोई अंत नहीं दिखता।
बड़ी बेटी की शादी में 5-7 लाख खर्च हो गए। बहुत मुश्किल से पेट काटकर लाख रुपए ही बचाए थे। बाकी साथियों और परिवार से कर्ज लेकर शादी की। थोड़ा समय बीता तो दूसरी बेटी भी शादी लायक हो गई। अभी पहले का ही कर्ज नहीं निपटा था कि दूसरी लड़की की शादी के लिए भी कर्ज लेना पड़ा। आज मेरे ऊपर 7 लाख का कर्ज है। लोग जब पैसे मांगने घर पर आते हैं तो हाथ जोड़कर माफी मांग लेता हूं। कह देता हूं थोड़ा-थोड़ा करके देता रहूंगा।
बच्चे कभी-कभी सवाल कर देते थे कि पापा कैसे चलेगा। दबाव इतना बढ़ गया कि नौकरी छोड़कर मजदूरी करने का फैसला करना पड़ा। पिछले 6 महीने से स्कूल नहीं जा रहा हूं। मजदूरी करके दिन के 600 रुपए कमा लेता हूं। कम से कम परिवार तो ढंग से पल रहा है। स्कूल से मैडम कॉल करके आने के लिए कहती हैं, लेकिन मैंने मना कर दिया।

वीर सिंह कहते हैं कि शिक्षामित्र से ज्यादा पैसा मजदूरों को मिलता है, इसलिए अब मजदूरी करता हूं।
मुझे ताज्जुब होता है कि सरकारी टीचर ठीक से पढ़ाते भी नहीं, लेकिन उन्हें टाइम पर सैलरी मिल जाती है। शिक्षामित्र की सैलरी भी टाइम पर नहीं मिलती। मैं जिस स्कूल में था वहां 2 साल तक कोई टीचर नहीं आया। सभी छुट्टी पर थे। पूरे दो साल 110 छात्रों को मैंने अकेले पढ़ाया।
थोड़ा गुस्से से वीर सिंह कहते हैं कि अगर मैं स्कूल के काम से ही बाहर हूं और कोई निरीक्षक आ जाए तो एक दिन की सैलरी काट दी जाती है। एक तो हमारी सैलरी टाइम पर नहीं आती और उसमें भी 300 की जगह 500 काट कर भेज देते हैं। कभी किसी त्योहार पर भी सैलरी टाइम पर नहीं मिलती।
कंस्ट्रक्शन साइट के पीछे खेत थे जहां गेहूं की कटाई चल रही थी। वहां मेरी मुलाकात अफजल और जाहिद से हुई। दोनों गेहूं की कटाई कर रहे थे। 46 साल के अफजल अहमद यूपी टेट, सीटेट क्लियर कर चुके हैं। 2006 से वो भी शिक्षा मित्र हैं।
अफजल कहते हैं कि हमारा मानदेय इतना कम है कि घर का खर्च भी नहीं निकलता। आर्थिक स्थिति खराब हो चुकी है। मेरे 4 बच्चे हैं और माता-पिता भी साथ ही रहते हैं। अभी ईद थी, बच्चों के कपड़े बनवाने थे, लेकिन सैलरी ही समय पर नहीं मिलती। हमारे लिए त्योहार श्राप बन चुका है। हमसे बेहतर तो मजदूर हैं जिन्हें 700 रुपए हर दिन मिलते हैं।
हमारी स्थिति उन मजदूरों से भी बदतर है, इसलिए दूसरों के खेत में मेहनत-मजदूरी कर रहा हूं। गेहूं के सीजन में गेहूं काट लेते हैं। मिट्टी ढोते हैं, ट्रेलर में मिट्टी भरने का भी काम कर लेते हैं। मिट्टी ढोने के 250-300 मिल जाते हैं और मौजूदा रेट के हिसाब से गेहूं काटने के पैसे मिल जाते हैं।

शिक्षामित्र अफजल स्कूल की ड्यूटी के बाद दूसरों के खेतों में काम करते हैं।
एक महीने पहले अम्मी के ऑपरेशन में 25000 खर्च हो गए। दो महीने पहले पत्नी के ऑपरेशन में भी बहुत पैसे खर्च हो गए। मैं बुरी तरह से कर्ज में फंस गया हूं। भर्तियां भी हैं, लेकिन हमें न तो पक्की नौकरी मिल रही और ना ही मानदेय बढ़ रहा है। रिश्तेदार और समाज हमें सबसे बदतर मानते हैं। लोग मजाक बनाते हैं कि ये टीचर बनने गए थे और इनका क्या हाल हो गया। इस उम्र में हम कोई और नौकरी नहीं कर सकते।
मोहम्मद जाहिद 19 साल से प्राथमिक शिक्षा में कार्यरत हैं। वो खेत की मेढ़ पर बैठकर अपने करियर के बारे में हैं कि 2006 से शिक्षा मित्र हूं। 2014 में परमानेंट हो गया था जिसके बाद हमारी आर्थिक स्थिति ठीक हो गई थी। मेरी शादी भी तय हो गई थी, लेकिन 2017 में इसे रद्द कर दिया गया। मेरी पक्की नौकरी एक बार फिर कच्ची हो गई। इसके साथ ही मेरा रिश्ता भी टूट गया। उसके बाद हमारी आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई।

मोहम्मद जाहिद कहते हैं कि पक्की नौकरी कच्ची हुई तो उनकी शादी भी टूट गई।
किसी और की गलती की सजा हमें मिल रही है। चिंता के कारण मेरी मां की भी डेथ हो गई। आज हम मजदूरी करके घर चला रहे हैं। हमारा पढ़ा-लिखा होना बेकार हो गया। ऐसी पढ़ाई का क्या फायदा जिसमें सम्मानित मानदेय न मिल सके। लोग तो खुलकर ताना मारते हैं और कहते हैं देखो आ गए 10 हजार के मजदूर। हम हजारों बच्चों के भविष्य को संवार चुके हैं, बस अपना नहीं संवार सकते।
शिक्षा मित्र संगठन के जिलाध्यक्ष संजय चौधरी कहते हैं कि जब 2000 में विद्यालयों की स्थिति खराब थी तो शिक्षा मित्रों ने शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने का काम किया। इसके अलावा शिक्षा मित्रों ने बीएलओ, निर्वाचन ड्यूटी, राशन कार्ड में काम किया, लेकिन तब से अब तक उन्हें सही सैलरी नहीं दी गई।
आज इनकी सैलरी 10000 है। जिन लोगों ने अपनी जिंदगी इस नौकरी में खपा दी उन्हें जिंदगी के आखिरी पड़ाव में सम्मान तो मिलना चाहिए।
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