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क्या भारत-पाक लड़ाई में UN के कूदने से बना PoK:भारत ने महीनेभर में बचाया दो-तिहाई कश्मीर; महाराजा हरि सिंह के मुस्लिम सैनिकों ने की गद्दारी




22 अक्टूबर 1947, पाकिस्तानी कबाइलियों ने जम्मू-कश्मीर पर धावा बोल दिया। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह यह मानकर चल रहे थे कि उनकी फौज कबाइलियों को खदेड़ देगी, लेकिन उनके मुस्लिम सैनिक दुश्मन से मिल गए। तीन दिन के भीतर कबाइली लूट-पाट, बलात्कार, कत्लेआम मचाते हुए बारामूला तक पहुंच गए। महूरा पावर स्टेशन को डायनामाइट से ब्लास्ट करके उड़ा दिया। पूरे कश्मीर में अंधेरा छा गया। महाराजा के महल में जल रहे हजारों बल्ब बुझ गए। अब कबाइलियों का टारगेट था श्रीनगर, जो बारामूला से महज 70 किलोमीटर दूर था। घबराए महाराजा हरि सिंह ने फौरन दिल्ली टेलीग्राम भेजा- ‘मुझे सैन्य मदद चाहिए।’ इस पर भारत ने जवाब दिया- ‘पहले कश्मीर का भारत में विलय कराइए, उसके बाद ही मदद भेजी जाएगी।’ टेलीग्राम भेजने के बाद हरि सिंह ट्रकों में बेशकीमती सामान भरकर जम्मू के लिए निकल पड़े। उन्होंने जम्मू पहुंचते ही अपने सेक्रेटरी से कहा- मैं सोने जा रहा हूं। दिल्ली से वीपी मेनन यहां आएं तो ही मुझे जगाना। अगर वो सुबह से पहले यहां नहीं पहुंचते हैं, तो मेरी पिस्तौल से सोते में मुझे गोली मार देना। 26 अक्टूबर को ही मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट्स के सेक्रेटरी वीपी मेनन जम्मू पहुंच गए। वे सीधे हरि सिंह के कमरे में गए। उनके हाथ में विलय पत्र था, जिस पर फौरन हरि सिंह ने दस्तखत कर दिए। वीपी मेनन विलय पत्र लेकर दिल्ली लौट आए। अगले दिन ही भारतीय फौज श्रीनगर पहुंच गई और महीनेभर में ही दो तिहाई कश्मीर बचा लिया। ‘पाकिस्तान पर फतह’ सीरीज के पहले एपिसोड में आज कहानी 1947-48 में भारत-पाकिस्तान के बीच हुई पहली जंग की… 18 जुलाई 1947, ब्रिटिश संसद ने इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 पारित किया। इसके तहत देश को दो डोमिनियन में बांटा गया- ‘भारत और पाकिस्तान।’ उस वक्त देशभर में 565 रियासतें थीं। इन रियासतों को छूट दी गई कि वो भारत या पाकिस्तान से जुड़ सकती हैं, या खुद को आजाद भी रख सकती हैं। 15 अगस्त 1947 तक ज्यादातर रियासतें भारत या पाकिस्तान में शामिल हो चुकी थीं। सिर्फ 3 रियासतों के विलय का मामला उलझा था- जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर। जून 1947 में भारत के आखिरी वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन महाराजा हरि सिंह से मिलने कश्मीर गए, लेकिन हरि सिंह ने बीमारी का बहाना बनाकर उनसे मुलाकात नहीं की। कुछ समय बाद माउंटबेटन के चीफ ऑफ स्टाफ लॉर्ड हेस्टिंग्स कश्मीर गए और अपने नोट में लिखा- ‘जब भी मैंने विलय की बात करनी चाही, महाराजा हरि सिंह ने विषय बदल दिया।’ एक आर्टिकल में महाराजा हरि सिंह के बेटे कर्ण सिंह बताते हैं- ’भारत में लोकतंत्र लाया जा रहा था, जो महाराजा को पसंद नहीं था। पाकिस्तान मुस्लिम देश बनने जा रहा था, उसके साथ जाना भी ठीक नहीं था। इसलिए हरि सिंह आजाद रहना चाहते थे।’ लैरी कॉलिंस और डोमिनिक लैपिएर अपनी किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में लिखते हैं- ‘24 अगस्त 1947 की बात है। पाकिस्तान को आजाद हुए 10 दिन बीत चुके थे। टीबी और फेफड़े के कैंसर से जूझ रहे मोहम्मद अली जिन्ना कुछ दिन कश्मीर में गुजारना चाहते थे। उन्होंने अपने सेक्रेटरी कर्नल विलियम बर्नी को कश्मीर जाकर दो हफ्ते की छुट्टियों का इंतजाम करने को कहा। पांच दिनों बाद बर्नी कश्मीर से लौटकर पाकिस्तान पहुंचे। उन्होंने जिन्ना से कहा- ’महाराजा हरि सिंह नहीं चाहते कि जिन्ना कश्मीर की जमीन पर कदम रखें, एक टूरिस्ट के तौर पर भी नहीं।’ जिन्ना ये जवाब सुनने के लिए तैयार नहीं थे। उन्हें सदमा-सा लगा। दरअसल, जिन्ना को लगता था कि आज नहीं तो कल कश्मीर पाकिस्तान का होगा। बंटवारे के वक्त उन्होंने कहा भी था- Kashmir was a ripe fruit which would fall into his lap only यानी, कश्मीर पके फल की तरह पाकिस्तान की झोली में ही गिरेगा। अभी 48 घंटे भी नहीं बीते कि जिन्ना ने एक सीक्रेट एजेंट को कश्मीर भेज दिया। एजेंट ने लौटकर जिन्ना को रिपोर्ट दी- ‘हरि सिंह किसी भी कीमत पर पाकिस्तान के साथ जाने के लिए तैयार नहीं हैं।’ पाकिस्तान ने साजिश के तहत अपने आर्मी चीफ को लंदन भेजा, फिर कश्मीर पर हमला सितंबर 1947 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली ने लाहौर में एक सीक्रेट मीटिंग की। मकसद था महाराजा हरि सिंह को किसी भी तरह कश्मीर का पाकिस्तान में विलय करने के लिए मजबूर करना। मीटिंग में सीधे-सीधे कश्मीर पर अटैक करने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया। पाकिस्तानी सेना को लगता था कि ऐसा करने से भारत के साथ जंग छिड़ जाएगी। कर्नल अकबर खान ने दूसरा प्रस्ताव रखा कि कश्मीर की असंतुष्ट मुस्लिम आबादी को राजा के खिलाफ विद्रोह भड़काने के लिए हथियार और पैसा दिया जाए, लेकिन इसमें एक दिक्कत थी। दिक्कत ये कि इसमें काफी वक्त लग सकता है। इसलिए ये प्रपोजल होल्ड कर दिया गया। तीसरा प्रपोजल था कि पठान कबाइलियों को हथियारों के साथ कश्मीर भेजा जाए और उन्हें पीछे से सेना मदद करे। मीटिंग में इस प्रपोजल पर मुहर लग गई। पाकिस्तान ने इस मिशन को नाम दिया ऑपरेशन गुलमर्ग। तब जनरल सर फ्रैंक वाल्टर मेसर्वी पाकिस्तान आर्मी के कमांडर इन चीफ थे। उन्हें जानबूझकर हथियारों की खरीद के लिए इंग्लैंड भेज दिया गया, ताकि उन्हें इस ऑपरेशन की भनक नहीं लगे। कबाइली पठानों के 10 लश्कर तैयार किए गए। हर लश्कर में एक हजार लड़ाके, पाकिस्तानी सेना से एक मेजर, एक कैप्टन और दस जूनियर कमीशंड अफसर शामिल किए गए। सैनिकों का चुनाव पठानों में से ही किया गया। वो कबाइलियों जैसे ही कपड़े पहनते थे। लश्कर को आगे बढ़ने के लिए लॉरियों और पेट्रोल की व्यवस्था भी पाकिस्तान ने की। इसके अलावा फोर्स ने उन्हें जंग के लिए स्पेशल ट्रेनिंग दी।’ कबाइलियों ने गैर-मुस्लिम महिलाओं को गुलाम बनाया, जो कलमा नहीं पढ़ पाए, उनकी हत्या कर दी 22 अक्टूबर 1947 की रात की बात है। एक पुरानी फोर्ड स्टेशन वैगन धीरे-धीरे रेंगते हुए झेलम नदी के पुल से सौ गज पहले आकर रुक गई। उसकी बत्तियां बुझी हुई थीं। गाड़ी में मुस्लिम लीग का युवा नेता सैराब हयात खान बड़ी बेचैनी से अपनी मूंछें ऐंठ रहा था। उसके पीछे ट्रकों की लंबी कतार थी। हर ट्रक में कुछ लोग चुपचाप बैठे हुए थे। ये पुल पार करते ही जम्मू-कश्मीर की रियासत शुरू हो जाती थी। लापिएर और कॉलिंस लिखते हैं- ‘अचानक स्टेशन वैगन में बैठे लोगों को रात के अंधेरे में आसमान में आग की लपटें दिखाई दीं। ये इस बात का संकेत था कि पुल के पार हरि सिंह के मुसलमान सैनिकों ने बगावत कर दी है। श्रीनगर की टेलीफोन लाइन काट दी गई है। स्टेशन वैगन के ड्राइवर ने अपना इंजन स्टार्ट किया और पुल पार कर गया।’ कश्मीर की लड़ाई शुरू हो चुकी थी। पाकिस्तान का टारगेट था 26 अक्टूबर से पहले श्रीनगर पर कब्जा करना और एक वैकल्पिक सरकार का गठन करके कश्मीर का पाकिस्तान में विलय कराना। कबाइलियों ने सबसे पहले धावा मुजफ्फराबाद पर बोला। वहां महाराजा के करीब 500 सैनिक थे। इनमें शामिल मुस्लिम सैनिक पाला बदलकर कबाइलियों के साथ मिल गए। कुछ ही घंटों में मुजफ्फराबाद कबाइलियों के कब्जे में था। कबाइलियों ने लूट-पाट, मारकाट और आगजनी शुरू कर दी। एक रिपोर्ट के मुताबिक जो लोग कलमा नहीं पढ़ पाए, उनकी हत्या कर दी। गैर-मुस्लिम महिलाओं को गुलाम बना लिया। सैराब हयात खां सोच रहे थे कि वे जल्द ही कश्मीर फतह कर लेंगे, लेकिन कबाइलियों ने तीन दिन मुजफ्फराबाद में गुजार दिए। इसके बाद कबाइली डोमल, पुंछ, रावलकोट और उरी पर हमला करते हुए बारामूला तक पहुंच गए। वहां भी लूट-पाट और कत्लेआम मचाया। इतना सामान लूटा कि उनके पास रखने तक की जगह नहीं बची। कई कबाइली तो ट्रकों में सामान, जानवर और औरतों को भरकर वापस भी लौट गए। एक रिपोर्ट के मुताबिक कश्मीर की मुस्लिम महिलाएं कबाइलियों को खाना खिलाने की पेशकश कर रही थीं, लेकिन पठानों को डर था कि इसमें जहर हो सकता है। पठानों ने जबरन उनकी बकरियां पकड़ लीं और उन्हें भूनकर खा गए। कबाइलियों ने महूरा पावर स्टेशन को डायनामाइट से ब्लास्ट करके उड़ा दिया। पूरे कश्मीर में अंधेरा छा गया। यहां तक कि महाराजा के महल में जल रहे हजारों बल्ब बुझ गए। महाराजा हरि सिंह समझ गए कि अब उनका श्रीनगर में रहना खतरे से खाली नहीं है। 24 अक्टूबर की रात 11 बजे उन्होंने दिल्ली संदेश भिजवाया कि कश्मीर पर हमला हो चुका है। भारत जल्द से जल्द सैन्य मदद भेजे। 26 अक्टूबर को वीपी मेनन विलय पत्र के दस्तावेज अपने साथ लेकर जम्मू पहुंचे, राजा हरि सिंह से दस्तखत करवाया और दिल्ली लौट आए। श्रीनगर की धूल भरी मिट्टी की हवाई पट्टी पर उतरी भारतीय फौज, महीनेभर में दो-तिहाई कश्मीर को बचाया कबाइली तेजी से श्रीनगर की तरफ बढ़ रहे थे। उनका टारगेट था श्रीनगर एयरफील्ड पर कब्जा करना। भारत को हर हाल में इसे बचाना था, वर्ना पूरा कश्मीर हाथ से निकल सकता था। तब भारत के पास मालवाहक विमानों की कमी थी। सरकार ने टाटा ग्रुप से मदद मांगी। इसके बाद टाटा DC-3 डकोटा विमान एयरफोर्स को सौंप दिया। डकोटा अमेरिकी डिजाइन ट्रांसपोर्ट विमान था, इसका इस्तेमाल दूसरे वर्ल्ड वॉर के दौरान भी हुआ था। 27 अक्टूबर, सुबह 5 बजे। सिख रेजिमेंट की फर्स्ट बटालियन ने DC-3 डकोटा विमान से श्रीनगर के लिए दिल्ली से उड़ान भरी। सुबह 7 बजे सिख रेजिमेंट की एक टुकड़ी ने श्रीनगर में मोर्चा संभाल लिया और दूसरी टुकड़ी को पट्टन भेज दिया गया। पट्टन बारामूला जिले में ही आता है। सुबह करीब 11 बजे श्रीनगर बारामूला हाईवे पर भारतीय सेना का मुकाबला कबाइली लड़ाकों से हुआ। कबाइलियों की संख्या कहीं ज्यादा थी। सिख रेजिमेंट के जवानों ने कबाइली लड़ाकों को आगे नहीं बढ़ने दिया, लेकिन इस कोशिश में 24 जवान और लेफ्टिनेंट कर्नल रंजीत राय को जान गंवानी पड़ी। कर्नल राय को मरणोपरांत महावीर चक्र से नवाजा गया। वे आजादी के बाद पहला गैलेंट्री अवॉर्ड पाने वाले सैनिक थे। कर्नल राय की वजह से भारत को कश्मीर में फिर से सैनिक भेजने का मौका मिल गया। इसके बाद 161 इन्फेंट्री श्रीनगर पहुंची। जिसे लीड कर रहे थे ब्रिगेडियर एलपी सिंह। साथ ही 1 पंजाब, 1 कुमाऊं और 4 कुमाऊं की बटालियन भी श्रीनगर उतर चुकी थी। 2 नवंबर को आर्मी को खबर मिली कि करीब 1 हजार लड़ाके बडगाम पर हमला करने वाले हैं। भारत का पहला परमवीर चक्र: 1 भारतीय सैनिक पर 7 कबाइली, फिर भी दुश्मन को 6 घंटे रोके रखा 3 नवंबर 1947, 4 कुमाऊं की 3 कंपनियों को बडगाम भेजा गया। इसकी एक टुकड़ी यानी डेल्टा कंपनी को लीड कर रहे थे मेजर सोमनाथ शर्मा। दोपहर 2.30 बजे कबाइलियों ने मेजर शर्मा की कंपनी को तीन तरफ से घेर लिया। तब मेजर शर्मा के दाहिने हाथ में प्लास्टर चढ़ा था। कुछ दिन पहले ही हॉकी खेलने के दौरान उनका हाथ फ्रैक्चर हो गया था। कबाइलियों की संख्या करीब 700 थी और मेजर शर्मा की कंपनी में महज 100 सैनिक थे। एक सैनिक 7 कबाइलियों से लड़ रहा था। दोनों तरफ से भयंकर गोलाबारी हो रही थी। एक के बाद एक मेजर शर्मा के साथी शहीद हो रहे थे। अपने सैनिकों का हौसला बढ़ाने के लिए मेजर शर्मा एक-एक पोस्ट पर जाकर मैगजीन पहुंचाने लगे, ताकि किसी पोस्ट पर गोलियां खत्म न हों। इसी बीच मेजर शर्मा ने हेडक्वार्टर संदेश भेजा कि दुश्मन हमसे बस 45 मीटर की दूरी पर है। हमारे हथियार-गोला खत्म हो रहे हैं, लेकिन हम एक इंच भी पीछे नहीं हटेंगे। हम आखिरी गोली और आखिरी जवान रहने तक लड़ेंगे। इसी बीच, एक मोर्टार सोमनाथ शर्मा को लगा और वे शहीद हो गए। उनकी टुकड़ी के 20 जवानों ने शहादत दी। डेल्टा कंपनी ने कबाइलियों को 6 घंटे तक रोक के रखा। इतना समय काफी था, पिछली टुकड़ी को आने के लिए। मेजर शर्मा को मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से नवाजा गया। आजादी के बाद परमवीर चक्र पाने वाले वे पहले सैनिक थे। सरदार पटेल ने कमांडर से कहा- ‘श्रीनगर को बचाना ही है, आपको जो चाहिए मिलेगा’ 161वीं इन्फेंट्री ब्रिगेड के कमांडर एल.पी. सेन अपनी किताब ‘स्लेंडर वज द थ्रेड: कश्मीर कॉन्फ्रंटेशन 1947-48’ में लिखते हैं- 4 नवम्बर की सुबह, जब मैं जंग के हालातों को लेकर रिव्यू कर रहा था। तभी मुझे मैसेज मिला कि डिप्टी प्राइम मिनिस्टर सरदार वल्लभ भाई पटेल और रक्षा मंत्री सरदार बलदेव सिंह घाटी में आ चुके हैं। वे मेरे हेड ऑफिस आ रहे हैं। मुझसे मिलते ही सरदार पटेल ने कहा- ‘श्रीनगर को बचाना ही है।’ मैंने कहा- ‘मुझे और ज्यादा सैनिक चाहिए। संभव हो तो कुछ तोपखाने भी। जितना जल्दी होगा उतना बेहतर होगा।’ सरदार पटेल उठे। उन्होंने कहा- मैं तुरंत दिल्ली लौट रहा हूं। आपको जो चाहिए वो जल्द से जल्द मिलेगा। उसी शाम मुझे मैसेज मिला कि पैदल सेना की दो बटालियन, बख्तरबंद गाड़ियों का एक स्क्वॉड्रन और फील्ड आर्टिलरी की एक यूनिट बाय रोड घाटी में भेजी जा रही है। इंजीनियरों ने पठानकोट से जम्मू तक सड़क पर कई पुलियाओं को पाट दिया था। अब घाटी तक बड़ी संख्या में सैनिक पहुंच सकते थे।’ जिन्ना ने ब्रिगेडियर उस्मान का सिर कलम करने पर 50 हजार का इनाम रखा था 7 नवंबर को कबाइलियों ने राजौरी पर कब्जा कर लिया और जमकर कत्लेआम मचाया। 24 दिसंबर को झंगड़ पर भी कबाइलियों ने कब्जा कर लिया। उनका अगला टारगेट नौशेरा था। उन्होंने इस शहर को चारों तरफ से घेर लिया। तब नौशेरा की कमान 50 पैरा ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर उस्मान खान संभाल रहे थे। बंटवारे से पहले ब्रिगेडियर उस्मान को जिन्ना ने पाकिस्तान सेना प्रमुख बनाने का ऑफर दिया था, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। इस पर नाराज जिन्ना ने उनका सिर कलम करने वाले को 50 हजार इनाम देने की घोषणा की थी। 4 जनवरी, 1948 की शाम नौशेरा पर कबाइलियों ने हमला बोला, लेकिन भारतीय सैनिकों ने उस हमले को नाकाम कर दिया। दो दिन बाद उन्होंने उत्तर पश्चिम से दूसरा हमला बोला। ये भी नाकाम रहा। उसी शाम 5000 कबाइलियों ने तोपखाने के साथ एक और हमला बोला, लेकिन ब्रिगेडियर उस्मान और उनके साथियों ने तीसरी बार भी नौशेरा को बचा लिया। इसके बाद ब्रिगेडियर उस्मान ने नौशेरा के पास के सबसे ऊंचे इलाके कोट पर जीत हासिल की और 18 मार्च 1948 को भारतीय सेना ने झंगड़ वापस हासिल कर लिया। जनरल वीके सिंह, ब्रिगेडियर उस्मान की जीवनी में लिखते हैं- ‘भारतीय सेना के हाथ से झंगड़ निकल जाने के बाद ब्रिगेडियर उस्मान ने प्रण किया था कि वो तब तक पलंग पर नहीं सोएंगे, जब तक झंगड़ दोबारा भारतीय सेना के कब्जे में नहीं आता। जब झंगड़ पर कब्जा हुआ तो एक गांव से पलंग उधार ली गई और ब्रिगेडियर उस्मान उस रात उस पर सोए।’ 3 जुलाई 1948 को पाकिस्तानी कबाइलियों से लड़ते वक्त ब्रिगेडियर उस्मान शहीद हो गए। उनके जनाजे में भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों के साथ मौजूद थे। इसके तुरंत बाद ब्रिगेडियर उस्मान को मरणोपरांत महावीर चक्र देने की घोषणा कर दी गई। भारत ने एक महीने के भीतर बारामूला, उरी, बडगाम सहित कश्मीर के बड़े हिस्से से कबाइलियों को खदेड़ दिया था। मीरपुर, गिलगिट-बाल्टिस्तान जैसे कुछ इलाकों में ही कबाइलियों का कब्जा रह गया था। भारत की फौज अब मुजफ्फराबाद की तरफ बढ़ने ही वाली थी। इसी बीच 1 जनवरी 1948 को भारत इस मसले को लेकर UN चला गया। 1 साल 2 महीने और 5 दिन जंग चली। UN के दखल के बाद 31 दिसंबर 1948 को पाकिस्तान सीजफायर पर राजी हो गया। जम्मू-कश्मीर का करीब दो-तिहाई हिस्सा भारत के पास रहा, जबकि करीब 30% हिस्सा पाकिस्तान के पास चला गया। ——————–
पाकिस्तान पर फतह सीरीज के दूसरे एपिसोड में कल यानी 6 मई को पढ़िए… 1965 की जंग का किस्सा, जब भारत की सेना लाहौर तक पहुंच गई थी।



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